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अब तो बोलना होगा
कश्मीरी पंडितों के मन की व्यथा - राकेश की कलम से
सच कड़वा था बरसों से चुप था,
वक़्त की गर्द उस पर चढ़ती रही I
ज़ख्म गहरे थे कभी भर नहीं पाए,
चुभन दर्द की दिन-ब-दिन बढ़ती रही I
सियासत इतिहास के हर्फ़ मिटाती गयी,
दहशतगर्दी के जुल्म ज़माने से छुपाती रही I
झूठ की हवाएँ अपनी दिशाएँ बदलती रही,
बुद्धिजीवी सोच युवाओं को गुमराह करती रही I
सच तो आखिर सच है,
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