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मेरे घर सुर्ख अख़बार आता है,
खून से लतपत,
उसका हर सफ़हा भीगा रहता है लहू से,
सफ़हे पलटते-पलटते मेरे हाथों पर सुर्ख रंग चढ़ जाता है,
हजार बार धोने पर भी नहीं उतरता।
इस कदर चढ़े रहते है, गिला-ओ-शिकवे,
कभी निंदा करता है किसी की तो कभी ताने देता है,
रोजनामा भरा आता है बेसबब वारदात से,
कभी खुल जाए बासी अख़बार तो बू आती है, खून की।
ऐसा नहीं है की, ख़ुशख़बरी नहीं लाया करता,
पर वो ख़बरें खून के साए में छुप जाया करती है।
रोज किसी न किसी का लहू लाया करता है,
रोजनामा आता है मेरे घर पर,
हर सफ़हा उसका लहू में डूबा रहता है।
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