घर की दुलारी's image
Poetry2 min read

घर की दुलारी

Ravi VermaRavi Verma June 9, 2022
Share0 Bookmarks 0 Reads3 Likes
रस्में शायद ढेर सारी थी,
धूम धाम की भी पूरी तैयारी थी,
भोजन और इज्जत बट तो रहे थे दावत में,
फिर क्यों नजरें झुकाए,
खुशियों का समंदर अंदर दबाएँ,
बैठी चुपचाप घर की दुलारी थी।

पिता का गौरव आसमान पर था,
जो था घर कभी अब मकान भर था,
थी तो खुशियाँ जहान भर की पीछे गाड़ी में,
फिर वो क्यों नही इस जहान में,
जो कल तक दुलारी का जहान भर था।

ये समय ही कैसे आ गया था,
रिश्ता जो बराबरी का था,
उसमें खुशियों का अंतर कैसे छा गया था,
दुलारी का पलड़ा हल्का,
लादनी पड़ी उसमें खूब चीजे,

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts