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काश मेरे मन की भी कभी हो पाती,
ये सर्द पूस की रातें गर्मियों में आती।
कितनी दुशवार हो जाती हैं रातें काटनी,
कोई तरकीब लगाओ काम नहीं आती।
बर्फीली रातों में कभी बाहर निकल देखिये,
खीचते रिक्शेवाले का बदन देखिये।
कैसा ठंड से थर-थर कांप रहा है,
मरकर भी जिंदगी अपनी काट रहा है।
कभी हमें आधे रस्ते उतारता नहीं,
ठंडा है बहुत पर वो हारता नहीं।
हम अपनी मंजिल पे पहुंच जाते हैं,
बस बदल कपड़े रजाई में घुस जाते हैं।
पर उसके नसीब में गर्माहट कहां,
उसे रजाइयों की कोई चाहत कहां।
पता है उसे कोई मंजिल से दूर है,
बच्चे हैं साथ छोटे घर बहुत दूर है।
अगर वो रात को आराम फरमाएगा,
कोई बेचारा ठंड से मर जाएगा।
कभी सोच के देखिए,
रात खुले में रहके देखिये।
एक दिन रिक्शे वाला हड़ताल चला जाय,
हर अखबार की यही सुर्खियां बन जाय।
रिक्शेवाले की वजह से कितनी मौत हो गयी,
नाजायज थीं मांगे तभी नामंजूर हो गयीं।
लेकिन वो सियासत दां नहीं,
उसकी ऐसी आदत नहीं।
अपनी औकात में मोल भाव करता है,
लेकिन जो वादा करता है पूरा करता है।
सबको घर पहुँचा कर रहेगा,
ठंड में थरथराता रहेगा, रिक्शा फिर भी चलाता रहेगा
'राज वर्धन जोशी'
ये सर्द पूस की रातें गर्मियों में आती।
कितनी दुशवार हो जाती हैं रातें काटनी,
कोई तरकीब लगाओ काम नहीं आती।
बर्फीली रातों में कभी बाहर निकल देखिये,
खीचते रिक्शेवाले का बदन देखिये।
कैसा ठंड से थर-थर कांप रहा है,
मरकर भी जिंदगी अपनी काट रहा है।
कभी हमें आधे रस्ते उतारता नहीं,
ठंडा है बहुत पर वो हारता नहीं।
हम अपनी मंजिल पे पहुंच जाते हैं,
बस बदल कपड़े रजाई में घुस जाते हैं।
पर उसके नसीब में गर्माहट कहां,
उसे रजाइयों की कोई चाहत कहां।
पता है उसे कोई मंजिल से दूर है,
बच्चे हैं साथ छोटे घर बहुत दूर है।
अगर वो रात को आराम फरमाएगा,
कोई बेचारा ठंड से मर जाएगा।
कभी सोच के देखिए,
रात खुले में रहके देखिये।
एक दिन रिक्शे वाला हड़ताल चला जाय,
हर अखबार की यही सुर्खियां बन जाय।
रिक्शेवाले की वजह से कितनी मौत हो गयी,
नाजायज थीं मांगे तभी नामंजूर हो गयीं।
लेकिन वो सियासत दां नहीं,
उसकी ऐसी आदत नहीं।
अपनी औकात में मोल भाव करता है,
लेकिन जो वादा करता है पूरा करता है।
सबको घर पहुँचा कर रहेगा,
ठंड में थरथराता रहेगा, रिक्शा फिर भी चलाता रहेगा
'राज वर्धन जोशी'
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