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देश काल का हाल क्या किसी से छिपा है! हर कोई अपनी फिक्र में लगा है। सभी प्रतिकूल समय में जीने की कला सीख रहे हैं।स॔वेदनाओं का निरन्तर क्षरण हो रहा है। 

हमारे लेखक और कविगण अब भी रचना कार्य में स॔लग्न हैं। समाज को अपने अवदान से कृतकृत्य करने का भ्रम पाले हुए हैं। सच्चाई तो यह है कि किसी के पास कुछ भी पढ़ने का फालतू समय नहीं। 

साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह वाक्य हम सभी स्कूली युग से पढ़ते आए हैं।इस शीर्षक से निब॔ध लिखने की भी परम्परा रही है। वस्तुतः आजकल ये सब कहने की बातें हैं। समाज का सही चित्रण करने का दुस्साहस दिखाने से सभी बचते हैं। क्या पता किस पर कौन सी धारा लगा कर अंदर कर दिया जाए! 

हमारे रचयिता दिनकर,धूमिल या दुष्यन्त नहीं बन सकते। देशद्रोह की स॔भावित धाराओं का भय उनको जस का तस लिखने से रोकता है। दर्पण को मूंद कर परे रख दिया जाता है।

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