
Share0 Bookmarks 45 Reads0 Likes
दूब की नोक पर
ओस की बूंद थी
जो इधर से उधर
कांपती, डोलती
झूलती, झूमती
मुस्कराती रही ।
भोर होने को थी
स्धच्छ आकाश की
लालिमा बढ़ चली
फिर किरण सूर्य की
बूंद पर आ पड़ी
श्वेत मोती बनी
झिलमिलाती रही ।
धीरे धीरे उसे
सात र॔ग भी मिले
रूप गर्वित हुई
किन्तु ये क्या हुआ!
धूप के ताप सै
वाष्प बन उड़ गई /बूंद की ये कथा क्यों अधूरी रही!
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments