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अंतस के तंत्रों की आवृत्ति , मिलकर दूर पटल पर
मधुर राग बिखेरती ,
प्रतिध्वनियां आकर मन को बहलाती कभी ,
कभी मिलन के गीत छेड़ती ,
विकल विह्वल मन कभी शून्य हो जाता,
डगमगाता कभी गिरता
फिर अश्रुओं की ओस लाता ,
रेत के महलों के खंडहरों में विचरता ,
राग पीड़ा का निश्छल मन मे भरता ,
कभी कुछ तितलियां आकर
सुनहरे रंग भरती ,
हंसती हंसाती नृत्य करके
अट्टहास करती ,
कभी कुछ मंत्र पढ़ती फिर फूंक देती ,
कुछ पल सहजता के तीर
नभ को तान देती ,
बांधकर एक स्नेह की डोर
फिर भाग जाती ,
न मिलन का सपना सजाती
न प्रणय का
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