
आज बिटियाँ थोड़ी विचलित सी थी
माँ को देख वो विस्मित सी थी
जिसको रहते थे हज़ारों काम
नहीं था एक पल को आराम
आज सुबह से वो मुक्त सी थी
अपने विचारो में लुप्त सी थी
जो रहती थी बेसुध बेसुध
लड़ती थी नित एक नया युद्ध
आज उसके नैनो में गर्व सा था
यह दिन उसका एक पर्व सा था
जो लोग उपहास बनाते थे
अकारण ही उसे रुलाते थे
आज वही उसकी प्रचिती पढ़ रहे थे
प्रशंसा में उसकी नए शब्द गढ़ रहे थे
यह सब देख बिटिया से रहा न गया
इतना प्रीत व्यवहार सहा न गया
बनाकर सूरत वो अपनी भोली
माँ के आंचल में बैठ कर बोली
क्या सूरज पश्चिम से है निकला
या हवाओ ने अपना रूख़ है बदला
कैसे ये लोग हुए इतने भले
क्यों आपके मिज़ाज़ भी है बदले
ये सुन माँ के मुख पे आयी मुस्कान
और किया उसने कुछ ऐसा बखान
ये लोग सभी आज है विवश
क्योकि आज हैं महिला दिवस
आज इनके लिए मैं सशक्त स्त्री हूँ
एक नए स्वर्णिम युग की रचियत्रि हूँ
आज इनके लिए मैं आदि शक्ति हूँ
नारी प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति हूँ
यह सुन बिटिया की जिज्ञासा और बढ़ी
यह दिन मात्र एक, ऐसा पूछ पड़ी
क्या कल भी ये लोग ऐसा ही बोलेंगे
या तुमको फिर शब्दों से तोलेंगे
यह सुन माँ की आँखो में नमी थी
उसके पास शब्दो की कमी थी
गहरी श्वास ले स्वयं को समझाया
और ये बोल बिटिया को ढांढस बंधाया
कि जल्दी ही वह समय भी आएगा
जब ये पर्व नित दिन मनाया जायेगा
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