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एक दीवार सा हो गया हूं
न कोई रोशनदान है
न कोई दरवाज़ा है
कुछ बोल नहीं सकता
अब केवल सुनता हूं
और अक्सर सोचता हूं
आख़िर ऐसा क्यों है?
आख़िर कैसे हुआ ये सब?
हर अश्क सीलन बन
सफ़ेद लिबास में
छाती से लिपटे रहते हैं
बेबसी की दास्तान बयां करते
मगर कोई नहीं सुनता
न इस पार वाले
न उस पार वाले
इसलिए ख़ामोशी से खड़ा रहता हूं
किसी से अब कुछ नहीं कहता
बस अब केवल सुनता रहा हूं
हर एक-एक अल्फाज़
और तब यह ख़्याल आता है कि मैं
एक दीवार सा हो गया हूं
न कोई रोशनदान है
न कोई दरवाज़ा है
© रविन्द्र कुमार भारती
#rabindrakbharti
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