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जन-ध्वनि को सुनते ही नहीं ये
बेक़द्रदानी ही करते जा रहे हैं
पूरी सल्तनत,कदमों में इनकी
बड़े ही बेपरवाह होते जा रहे हैं।
वादों से पलटना काम इनका
भूलकर भी न ले तू नाम इनका
कभी भी मत गहो तुम बाँह इनका
अधिकार-लिप्सा, भोग लिप्सा
है भरा इनके ज़ेहन में
पापमय कर्मों में ही
संलिप्त होते जा रहे हैं।
दोमुँहे सांप हैं ये –
जो सबको डस रहे हैं
बोलना डसना तो इनकी फ़ितरतें हैं
निरन्तर विष-वमन ही कर रहे हैं।
साँप के डसने से,फिर भी
मानव कभी बच सकता भी है
पर इन दोमुँहे साँपों से कैसे बच सके हैं।
ये बातें जानकर भी
इन्हें पहचान कर भी
हम लुटते जा रहे हैं
ये कैसी विडम्बनाएँ हैं हमारी
जो सबकुछ ही, सहते जा रहे हैं।
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