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जी रहा हूँ ज़लालत भरी जिंदगी !
मजबूरी का दंश झेल रहा हूँ
दिल जिसकी गवाही नहीं देता
वो सब कुछ कर रहा हूँ
शोषण का शिकार हो रहा हूँ
पर कुछ भी कह नहीं पा रहा हूँ
क्योंकि–मजबूरी ही ऐसी है, यहाँ–
नियम नहीं चलते, प्रतिबन्ध चलते हैं !
साँसों पर बैठा दिए जाते हैं– पहरे !
सख्ती से दबा दी जाती हैं– आवाजें !
स्वयं का ज़ुर्म छिपाने के लिए
बेकसूरों को दी जाती हैं– सजाएं !
अपनों से दूर अपरिचित-अंजान–
देश में रहते हुए.....याद आता है–
अपना देश! गाँव ! घर !
और स्मृतियों के चलचित्र !
त्वरित गति से चलने लगते हैं–
गर्मी के दिन आ गए होंगे
गर्म पछुआ हवाएं बहने लगी होंगी
धूल-भरे बवण्डर! उठ रहे होंगे
माँ चूल्हे पर भोजन बना रही होगी
उसको मेरी याद आ रही होगी
साहूकार तगादा कर रहा होगा
माँ विवश व कातर दृष्टि से–
उसका मुँह देख रही होगी
हर बार की तरह अपने –
भाग्य को कोस रही होगी
हृदय पर अनगिनत –
यातनाएं सह रही होगी
'आठ-आठ आँसू' रो रही होगी!
तवे की रोटी जल गई होगी!
बिना खाये-पिये ही –
माँ! सो गई होगी!
कितनी अभागी माँ !
या अभागा मैं ?
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