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मन में तेरे ग़र द्वंद्व नहीं
हे कवि तुममें कोइ छंद नहीं ।
क्या ख़ाक तू जीवन जीता है
बस खाता–पीता सोता है ?
वादों - प्रतिवादों को तजकर
पथ की बाधाएं तोड़ - फोड़ !
निकलो हे कवि !
'कवि–पथ' पर ।
उठ चल कवि !
अपनी कलम थाम !
दे दे शब्दों को नई धार !
कविता में भर नव-छंद- ताल !
लेखन को अपने करो मुखर
नव स्वर भर छेड़ो नयी तान !
लेखन हो तेरा अमृत–पूत
तू कवि शब्दों का देवदूत !
काटो बंधन उर–तिमिर चीर !
अभिशप्त जनों का हरो पीर !
तू शांतिदूत ! चिरक्रान्ति पथिक !
काँटों पथ चुन , बढ़ते अविचल !
ज्योतिर्मय कर दे दिग्दिगंत !
नभ-जल-जंगल-भूमण्डल !
देखो - देखो उस ओर तनिक
वह दैन्य–दीन शोषित मानव
सुख-सुविधा से वंचित मानव
तड़प रहा भूखा मानव !
अट्टहास कर रहा वह !
देखो –
शोषक दानव !
सुन !सुन ! सुन ! वह हृद-क्रंदन !
वह विश्व–मनस् कर रहा रूदन !
संचित जो अनुभव-राशि सकल
उन सबका कर अर्पण !
भर दो समष्टि का उर - अंतर !
घनीभूत पीड़ा ! उर की
आर्तनाद! सुन ! जन – जन की
करुण कहानी कह घर–घर की
अर्पित कर दो जीवन-सार
पिघल उठें पाषाण हृदय भी ।
तेरे शब्दों में आत्म-शुद्धि !
क्यूँकि तुम हो देहात्मबुद्धि !
घुटते-लुटते पीड़ित जन की –
मौन व्यथाएँ कह कवि !
फूल नहीं,
शूलों पर चल कवि !
उन सब के नापाक इरादे
मसल - कुचल चल !
चल रे चल ..
देर कहीं ना हो जाये
द्रुत गति से चल ...
तुम उषःकाल की नई किरण
फैलो बनकर आलोक पुञ्ज !
भर दो ऊष्मा से निखिल विश्व
कल्मष हर , हर लो शोक गहन !
अमृत – धार से कर वर्षण !
मृत-जीवन में नव जीवन भर !
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