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एक-एक ईंट रखी थी
बड़े ही सलीके से !
न जाने कैसी चली बयार !
और , नींव ! हिल गई !
सींचा था 'माँ' ने
हसरतों से घर-आँगन को ,
न जाने कैसी बरसी आग !
और , अरमां ही जल गए !
आँगन के पूर्वोत्तर कोने में ,
लगाए थे माँ ने ,
तुलसी का एक होनहार बिरवा !
साँझ-बाती करती थी प्रतिदिन !
ना जाने कैसी आयी वो बला !
कुम्भला गया तुलसी का बिरवा !
झुलस गईं ! हरी पत्तियां !
कांप उठा ! माँ का हृदय !
अनिष्ट की आशंका से ।
द्वार की देहरी पर –
जलाती थी नित दीप !
सभी रहें सलामत !
बने रहें खुशनसीब !
दरकी दीवार !
खिसकी ईंट !
बिखर गया घर-आँगन !
टूट गया मां का दिल !
तिनका-तिनका जोड़कर ,
बनाया था सुंदर घर !
न जाने किसकी लगी नजर !
और , बिखर....गया....घर !
भाई ने कहा - भाई से ,
और माँ ?
माँ,सुन रही थी उनकी बातें !
भला, कलेजे को कैसे बांटे ?
कलेजा कांपा !
सिहर उठा वजूद !
घूमा ! मां का सिर !
हिल उठा समूचा ब्रह्मांड !
घूम गई धरती, धँस गई धरा !
थर्रा उठा आकाश !
और–
क्षण-भर भी तो नहीं लगा ,
फट गया मस्तिष्क !
और माँ ! धड़ाम !
चली गई माँ !
अनंत की यात्रा पर ...
शेष रह गया , पार्थिव शरीर !
प्रतीक्षा में हैं अब भी –
दो डबडबाई-उभरी आंखें !
कि , बच्चे ! घर , ना बांटें !!
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