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तुम बस मंज़िल ही क्यूँ रही
तुम बस मंज़िल ही क्यूँ रही
ता-उम्र ज़हन में
ये सवाल रहा
मैं सफ़र में ही क्यूँ रहा
मैं सफ़र में ही क्यूँ रहा
बस यही एक मलाल रहा
होली भी आयी थी
उस रोज़ जब
गालों पे तुम्हारें
होली भी आयी थी
उस रोज़ जब
गालों पे तुम्हारें
रंग किसी और का था
और मेरे हाथों मे बस गुलाल रहा
रंग हम भी सकते थे
रंग हम भी सकते थे
लब, स्याह लाल तुम्हारे
वो लाली
वो लाली
कोई और ले गया
मेरे पास बस
बोसे का रुमाल रहा
रचना :पुष्पेंद्र पाल सिंह
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