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अब भी लिखती हूँ अश'आर मगर
पहले जैसा असर नहीं होता
तुझसे मिलती थी तो जन्नत लगता था
तेरी गैर-मौजूदगी में ये शहर, वो शहर नहीं होता
लगी रहती हूँ किसी-न-किसी उधेड़-बुन में
तुझे सोचे बगैर मेरा दिन पूरा नहीं होता
यू तो नियामतें हज़ार बख्शी है खुदा ने
पर सोचा हुआ हर अरमान क्यों पूरा नहीं होता
बेशुमार रातें रोकर काटी है तेरे हिज़्र में
ये कैसा गम है जो बरसो बाद भी जुदा नहीं होता
अब तो मुझे पता है, तू किसी और का है
ये बता - तू मुझे अच्छा लगना बंद क्यों नहीं होता ?
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