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मैं कैसे हर मान लू
ऐ ज़िंदगी
कैसे हार मान लूँ
माना कि ज़िंदगी इम्तहान की तरह
रोज़ मुझे बेचैन करती है सवालों से ..
माना कि कुछ सवाल ऐसी भी है
जो मिलते नहीं मेरे ख़्यालों से ..
पर जवाब ना देने की फ़ितरत
कहाँ मंज़ूर मेरे जिगर को ..
कैसे छोड़ दूँ लड़ना
बिना आज़माए अपने हुनर को ..
तों कैसे हार मान लूँ
ऐ ज़िंदगी
मैं कैसे हर मान लूँ..
के बस थोड़ा लड़खड़ा गया ग़र
जाने अनजाने अगर ..
तो क्या हुआ अभी तो
मेरा हौसला मरा नहीं तो ..
जज़्बे की एक और उड़ान लूँ..
मैं कैसे हार मान लूँ ..
ऐ ज़िंदगी
कैसे हार मान लूँ..
के नहीं हुआ सोचा जैसा
होता कहा हर कुछ वैसा ..
जो है हम चाहते
अभी तो है कई और रास्ते …
हाँ खींच ही लाएँगे राहतें
कुछ पूरी अधूरी चाहते ..
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