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कब जुडोगे कान्हा तुम,
मेरे अधूरे फसाने मैं।
तेरे दीद को तरसी कान्हा,
मै तो इस बरसाने मैं।
एक बूंद को प्यासी कान्हा,
अपने इस वीराने मैं ।
बिरहा की अग्नि से,
कब तक ऐसी चलूंगी मैं।
आखिर तुमको आना होगा,
मेरे इस बरसाने मैं।
ऊधो भी नहीं दिखते अब तो,
बृज की तंग गलियों मैं।
जो भेज सकती कान्हा,
तुमको प्रेम-पाती मैं।
क्या हाल है मोहन बृजभान की लली का,
पूछो तो बतलाऊ मैं ।
मेरे बिना तुम आधे हो,
तुम्हारे बिना आधी मैं ।
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