मरीचिका's image
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ललित जिल्द से अलंकृत,

सुव्यवस्थित कोष्ठबद्ध पृष्ठ,

पृष्ठों पर सजी वर्णमाला,

पुस्तक का नाम मरीचिका।

नाम सत्य था,

दृश्य जो वास्तविक था ,नहीं दिख रहा था ,

जैसा देखना चाह रहे थे, वैसा दिख रहा था।

विरोधाभास में सत्त्याभास।

विधाता ने जिल्दकार को सौंपा था ,

जैसा संवारा वैसे सवंर गई।

प्रणय सूत्र से नत्थी बंधनों की अवहेलना नहीं की जा सकती,

प्रणय की आशा, कोरी निराशा हो तब भी।

अतृप्त प्रेम की व्यथा से पगे हुए अक्षर ,

कविता बन पुस्तक पर छपे थे।


दिल के अनंत में,

यह अक्षर बिखरे बिखरे से थे ।

शब्दों के सुलेख बन नहीं पाए।

स्वच्छंद थे ,नत्थी से नहीं जड़े।

क्योंकि यह ऐसी लेखनी से निकले,

जो सरल और स्वच्छंद है ।

गहराई में क्या छिपा, सिर्फ गहराई को मालूम है।

किसी ने नहीं ढूंढा!

ऊपर का धरातल भी सरल था, विरल था,

सघनता का परिचय नहीं था

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