
ललित जिल्द से अलंकृत,
सुव्यवस्थित कोष्ठबद्ध पृष्ठ,
पृष्ठों पर सजी वर्णमाला,
पुस्तक का नाम मरीचिका।
नाम सत्य था,
दृश्य जो वास्तविक था ,नहीं दिख रहा था ,
जैसा देखना चाह रहे थे, वैसा दिख रहा था।
विरोधाभास में सत्त्याभास।
विधाता ने जिल्दकार को सौंपा था ,
जैसा संवारा वैसे सवंर गई।
प्रणय सूत्र से नत्थी बंधनों की अवहेलना नहीं की जा सकती,
प्रणय की आशा, कोरी निराशा हो तब भी।
अतृप्त प्रेम की व्यथा से पगे हुए अक्षर ,
कविता बन पुस्तक पर छपे थे।
दिल के अनंत में,
यह अक्षर बिखरे बिखरे से थे ।
शब्दों के सुलेख बन नहीं पाए।
स्वच्छंद थे ,नत्थी से नहीं जड़े।
क्योंकि यह ऐसी लेखनी से निकले,
जो सरल और स्वच्छंद है ।
गहराई में क्या छिपा, सिर्फ गहराई को मालूम है।
किसी ने नहीं ढूंढा!
ऊपर का धरातल भी सरल था, विरल था,
सघनता का परिचय नहीं था ।
इसलिए शायद सब कुछ परावर्तित हो जाता था।
किसी का दोष नहीं!
मरीचिका सत्य सिद्ध हो रही थी।
छद्म मुखोटे पहनने के प्रयास में ,
अंदर उतना ही बिखराव फैलता ।
वर्षों के संयमित इंतजार से विकल हो ,
आंदोलित मन कभी-कभी आर्त हो पुकारता।
यह विद्रोह था या क्षुब्धता,
विद्रोह नहीं हो सकता, विद्रोह सीखा ही नहीं ,
समर्पण ही अंगों में रचा बसा है।
सब कुछ स्पष्ट और सच्चा है।
कोई छद्म नहीं।
स्वयं से बात करते-करते एकाकी मन,
स्वयं में खोने लगा है।
अपना चित्रण करने के लिए,
किसी कलाकारी भरी जिल्द की जरूरत नहीं ।
निरर्थक सुलेखों का अस्तित्व नहीं।
स्वयं से परिचय होने पर,
अब अक्षर पूर्ण सार्थक शब्द बना रहे हैं ।
अनंत अनंत से मिलकर आलोकित है ।
विश्वास रंग लाया।
अक्षर रूपी श्रद्धा सुमन, अक्षर को समर्पित।
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