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"विकास के हाथों मनुज मजबूर हो गया"
अंकुर लगाया और फिर खुशियों से सजाया
वो रफ़्ता रफ़्ता वृक्ष हो के दूर हो गया,
स्नेह का, वात्सल्य का, मृदु नोंक-झोंक का
मधुवन सा घर, मकां बना बेनूर हो गया।
दो गज का फ़ासला हुआ मीलों की दूरियाँ
विकास के हाथों मनुज मजबूर हो गया।
-प्रदीप सेठ सलिल
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