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'वो क्षण तुम्हारे मेरे पास छूट गए थे'
विगत बांधा
क्षितिज पर भविष्य के
कि
शायद
मिलने का आभास ही
कभी हो
कभी तो,
धीरे बहुत धीरे
बढ़ता गया आकार
अंधकार
न मिलने का,
कुछ सुमन शेष
सुबह की आशा में विशेष
संजोए
किन्तु.....
किन्तु ही रहा,
आहिस्ता आहिस्ता मुरझाते
कोई कथा दोहराते
पुष्प
ओझलता की
अन्तिम रेखा तक
पहुंचे विरक्त,
अब तो
सूने बस्ते में रख छोड़ा
सामान तुम्हारा
हमारा,
संभवत:
पृष्ठ खुलें
कभी,
पा जाऐं
पूरित आशाऐं,
वो क्षण
जो क्षण तुम्हारे,
मेरे पास
बहुत पास छूट गए थे।
--प्रदीप सेठ सलिल
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