
'तुम ही सृजन तुम सृष्टि, बोलो,
ओ! कलिका तुम भी कुछ बोलो'।
तुम ही सृजन तुम सृष्टि, बोलो,
ओ! कलिका तुम भी कुछ बोलो।
नगरों में कुछ हिस्सा पाया,
अंतरिक्ष है अभी बकाया,
हवा, उजाला, भंवरा, उपवन
सांझा सरमाया लघु जीवन,
सभी परस्पर पूरक बोलो
ओ! कलिका तुम भी कुछ बोलो।
सदियों से जाने अनजाने
जन्म लिया मिट गईं अजाने,
कभी अकेले रूप नगर में
इठलाईं बचपनी उमर में,
किन्तु मूक बनीं क्यों बोलो
ओ! कलिका तुम भी कुछ बोलो ।
निश्छल संबन्धों की सरिता
गहरा सागर, स्नेहिल कविता,
निंदिया की अधमुदीं जवानी
बोझिल पलकें सुन्दर रानी,
चिर मुस्काती कुछ तो बोलो
ओ! कलिका तुम भी कुछ बोलो।
तपती रहीं मगर मुस्काईं
लुटती रहीं मगर शरमाईं,
पीड़ा करती रही ठिठोली
पहने रहीं कंटीली चोली,
कितना दर्द सहोगी बोलो
ओ! कलिका तुम भी कुछ बोलो।
अर्थ तंत्र की अपनी भाषा
तौर तरीके व परिभाषा,
विज्ञापन के जादु टोने
फूल कलि इस ठौर खिलौने,
तुम्हीं सृजन, तुम सृष्टि बोलो
ओ! कलिका तुम भी कुछ बोलो।
---प्रदीप सेठ सलिल
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