
मैं जानता हूं कि तुम पढ़ती बहुत हो...
पर काश! कभी तुम मेरे दिल को पढ़ पाती...
पढ़ पाती कभी तुम मेरे जज्बात को...
जो मैं चाहता हूं कि तुम खुद ही जान जाओ...
काश! तुम पढ़ पाती मेरे राज़ को
सुना है, आंखें कभी झूठ नहीं बोलती...
काश! कभी तुम मेरी आंखों को पढ़ पाती...
काश! तुम मुझे पढ़कर हकीकत जान जाती...
मेरे प्यार को, मेरी मोहब्बत को समझ पाती...
हां, चाहा है मैंने कि तुम मुझे जी भर के पढ़ो...
पर क्युं तुम बिना पढ़े ही मुझे बंद कर जाती?
क्या मेरे आंसूओं ने, मेरे चेहरे ने तुम्हें पढ़ने का न्योता नहीं दिया?
या तुम खुद जान-बुझकर मुझसे मुॅंह मोड़ लेती हो...
हो सकता है कि तुम्हें बस किताबें पढ़नी आतीं हो...
पर क्या तुमने कभी हरकतों को, बचकानियों को, कभी नादानियों को पढ़ना नहीं सीखा? नहीं ना?
काश! तुम्हें आता एहसासों को पढ़ना...
तब तुम शायद मुझे छोड़कर ना जाती!!
--पीयूष यादव
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