
सुबह के नहीं नहीं रात के बजे है चार,
दुनिया के सोने का समय ,
फिर हम क्यों है जगे ,
क्या अलग है इस दुनिया से ,
नहीं है ऐसा तो नहीं ,
काम निपटा कर नींद में खोने ,
आराम से सोने ही तो आये थे ,
फिर नींद उड़ी कैसे ?
किस रास्ते इतनी दूर निकली ?
लेटे आँखे मुंदी ,
दिन बिता कैसे टटोला ,
कल ना ना आज क्या क्या करेंगे सोचा ,
लिस्ट मन में ही लिख डाली ,
फिर इंतज़ार था बस नींद का ,
करवट मैंने बदली संग ख्यालो ने भी ,
गलतिया अपनी सामने दौड़ते दिखी,
तेज़ी में कुचल देने की भावना से दौड़ते ,
जल्दी करवट बदली मैंने ,
अपनी कोशिशे दिखी मुझे ,
छोटी से बड़ी होते ,
बीज से पेड़ होते ,
मुस्कुराई इठलाई ली जम्हाई ,
मन चल दिया दूसरी ओर ,
किसी ख्याल का अभी न पहरा ,
आँखों में सिर्फ नहीं खुदमे महसूस हो रहा अँधेरा है ,
अनकहे से भाव है ,
चल रहे जैसे नाव है ,
घाट किनारे की परवाह बगैर ,
छानते चलते शहर दर शहर ,
तूफ़ान लिए पर चुपी में ,
मैं बस खामोश इनके बीच ,
इसी इंतज़ार में की शायद ,
सूरज के साथ ही अब ,
निंदिया रानी आएगी |
- पिंकी झा
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