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एक बेहोश ज़माने का,
खुद-फरोश जवानी का,
सुखन-परदाज़ हूं मैं तो,
एक बिखरी कहानी का।
मेरा मैं खुद नहीं,
मैं हुं...
मैं शायद नहीं...
अंधेरा है,
रात है,
वक्त भी साथ नहीं मेरे;
दरवाज़े तो क्या,
रोशनदान से फारिग है...
इस शहर को क्या आबाद करुं।
पर्दा-नशीं हूं खुद,
तुझे क्या आज़ाद करूं।
आज नश्तर सी इस हवा में,
अपना वजूद थामे चल रहा था,
मैं तन्हा था,
मगर,
उन्हें खल रहा था।
समझने लगा हूं मैं,
उफक़ और शीशे में ढलते,
उन सितारों का दर्द।
कहीं दूर अनजान से रास्ते पर सुनी मैंने...
कसते से हाथ से एक दबती सी चीख...
कोई साया था,
नजर तो आया था।
वक्त...
जो कहीं ठहरा
ठिठककर
एक तारीक कोने से,
रोशनी ढूंढता एक हाथ दिखा...
आहिस्ता से बहता खूँ उसके साथ दिखा...
दूर हवा के झोंकों में सिसकता लिबास,
दिखी मुझे...
एक मासूम की शक्ल में इंसानियत की लाश.
तभी देखता हूं,
ख़ून और आंसुओं के एक समंदर ने,
मेरे नीचे की जमीं बहा दी
लड़खड़ाया,
बैठ गया...
नहीं...
शायद गिर गया
कौन ज्यादा गिरा था,
मैं? या ज़माना?
पता नहीं।
आवाज़ और अल्फाज की,
एक दूसरे से उस बेरुखी ने मुझे
सोचने पर मजबूर कर दिया,
मौत के मुहाने पर,
उसने देखना चाहा मुझे
और...
दर्द की एक लहर ने उसे मुझसे और दूर कर दिया
अधखुली बेजान आंखों में
मैं उसे तलाश रहा था
मैं मौजूद था...
हां...
उस बेइंतहा तकलीफ में भी उसका वजूद था
मगर कब तक?
कब तक?
मैंने थाम लिया...
कांपते से हाथों से एक कांपता सा बदन
हुआ... एहसास...
महसूस कर पा रहा था मैं,
वो उखड़ती सांसें!
सर्द चांद, मरती आहें!
समझ न सका की कैसे?
कोई इन मासूम सांसों को रोक कर मर्द हो गया...
और...
खौफ से जज़्ब वो बदन मेरे हाथों में
ज़र्द हो गया...
स्याह पन्नो पर
पढ़े मैंने
उसके दमान पर उठते सवाल।
हां...
जाली अल्फाजों के साए में पोशीदा,
ज़ेहन के कफस से झांकते कुछ एहसास दिखे
मैंने एक मां की आंखों में मरने की हसरत देखी!
वालिद के कांपते हाथ
और
कातिल की होती इबादत देखी...
"दर्ज तो है तुम्हारा दर्द तफसीलों में"
अपनी आंखों से मगरिब की इनायत देखी...
इंसाफ के चादर से ढकी ज़ुल्मत की इमारत देखी...
झूठ के पुलिंदो में दफन उसकी आयत देखी...
मैंने देखा की बिकते हैं,
कई मुंसिफ मिजाज़ लोग यहां,
शिर्क-ए-हकीकत के खून से लबरेज़ शमशीर लिए,
मैंने गाज़ी होते दौलत देखी...
ये जंग
ईमान की कब्र और शोहरत को जिंदगी में है,
जो हिला सके बा'असर लोगों की सियासत,
इतनी औकात कहां गदा की हसरत में है,
एक रात मेरे हाथों में दम तोड़ा था उसने,
मैंने अपनी बाहों में मरती इंसानियत देखी...
उस रात...
आवाज़ को सीने में दफन होते देखा
रूह को जज्बातों का कफन होते देखा
उस रात...
वो अधखुली बेजान लाल सुर्ख आंखें,
मेरी रूह से जाने क्या कह गईं?
तुम... कैसे सह गईं?
ये सवाल करने में उसकी कब्र तक कई बार गया,
करता भी...
जो गर होता ईलाज...
आंखों से बहते इस पानी का,
एक बेहोश ज़माने का,
खुद-फरोश जवानी का,
सुखन-परदाज़ हूं मैं तो,
एक बिखरी कहानी का...
खुद-फरोश जवानी का,
सुखन-परदाज़ हूं मैं तो,
एक बिखरी कहानी का।
मेरा मैं खुद नहीं,
मैं हुं...
मैं शायद नहीं...
अंधेरा है,
रात है,
वक्त भी साथ नहीं मेरे;
दरवाज़े तो क्या,
रोशनदान से फारिग है...
इस शहर को क्या आबाद करुं।
पर्दा-नशीं हूं खुद,
तुझे क्या आज़ाद करूं।
आज नश्तर सी इस हवा में,
अपना वजूद थामे चल रहा था,
मैं तन्हा था,
मगर,
उन्हें खल रहा था।
समझने लगा हूं मैं,
उफक़ और शीशे में ढलते,
उन सितारों का दर्द।
कहीं दूर अनजान से रास्ते पर सुनी मैंने...
कसते से हाथ से एक दबती सी चीख...
कोई साया था,
नजर तो आया था।
वक्त...
जो कहीं ठहरा
ठिठककर
एक तारीक कोने से,
रोशनी ढूंढता एक हाथ दिखा...
आहिस्ता से बहता खूँ उसके साथ दिखा...
दूर हवा के झोंकों में सिसकता लिबास,
दिखी मुझे...
एक मासूम की शक्ल में इंसानियत की लाश.
तभी देखता हूं,
ख़ून और आंसुओं के एक समंदर ने,
मेरे नीचे की जमीं बहा दी
लड़खड़ाया,
बैठ गया...
नहीं...
शायद गिर गया
कौन ज्यादा गिरा था,
मैं? या ज़माना?
पता नहीं।
आवाज़ और अल्फाज की,
एक दूसरे से उस बेरुखी ने मुझे
सोचने पर मजबूर कर दिया,
मौत के मुहाने पर,
उसने देखना चाहा मुझे
और...
दर्द की एक लहर ने उसे मुझसे और दूर कर दिया
अधखुली बेजान आंखों में
मैं उसे तलाश रहा था
मैं मौजूद था...
हां...
उस बेइंतहा तकलीफ में भी उसका वजूद था
मगर कब तक?
कब तक?
मैंने थाम लिया...
कांपते से हाथों से एक कांपता सा बदन
हुआ... एहसास...
महसूस कर पा रहा था मैं,
वो उखड़ती सांसें!
सर्द चांद, मरती आहें!
समझ न सका की कैसे?
कोई इन मासूम सांसों को रोक कर मर्द हो गया...
और...
खौफ से जज़्ब वो बदन मेरे हाथों में
ज़र्द हो गया...
स्याह पन्नो पर
पढ़े मैंने
उसके दमान पर उठते सवाल।
हां...
जाली अल्फाजों के साए में पोशीदा,
ज़ेहन के कफस से झांकते कुछ एहसास दिखे
मैंने एक मां की आंखों में मरने की हसरत देखी!
वालिद के कांपते हाथ
और
कातिल की होती इबादत देखी...
"दर्ज तो है तुम्हारा दर्द तफसीलों में"
अपनी आंखों से मगरिब की इनायत देखी...
इंसाफ के चादर से ढकी ज़ुल्मत की इमारत देखी...
झूठ के पुलिंदो में दफन उसकी आयत देखी...
मैंने देखा की बिकते हैं,
कई मुंसिफ मिजाज़ लोग यहां,
शिर्क-ए-हकीकत के खून से लबरेज़ शमशीर लिए,
मैंने गाज़ी होते दौलत देखी...
ये जंग
ईमान की कब्र और शोहरत को जिंदगी में है,
जो हिला सके बा'असर लोगों की सियासत,
इतनी औकात कहां गदा की हसरत में है,
एक रात मेरे हाथों में दम तोड़ा था उसने,
मैंने अपनी बाहों में मरती इंसानियत देखी...
उस रात...
आवाज़ को सीने में दफन होते देखा
रूह को जज्बातों का कफन होते देखा
उस रात...
वो अधखुली बेजान लाल सुर्ख आंखें,
मेरी रूह से जाने क्या कह गईं?
तुम... कैसे सह गईं?
ये सवाल करने में उसकी कब्र तक कई बार गया,
करता भी...
जो गर होता ईलाज...
आंखों से बहते इस पानी का,
एक बेहोश ज़माने का,
खुद-फरोश जवानी का,
सुखन-परदाज़ हूं मैं तो,
एक बिखरी कहानी का...
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