
,, स्वाभिमान
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तू खुद को ना यूँ दुर्बल कर।
सबसे तू खुद को प्रबल कर।
अभिमान को स्वाभिमान बना,
स्वाभिमान तो तू खुलकर कर।
ये सोच शत्रु तेरे भीतर ही खड़ा है,
उसका सामना तेरे स्वाभिमान से पड़ा है,
खुद ना तू निर्बल कर।
आत्मविश्वास से ही उसको निर्बल कर।
दुःख के विशालकाय पहाड़ पर ,
विश्वास की तू कड़ी बना,
भिन्न -भिन्न करके उसकी सीढ़ी बना,
अपनी जीत को तू प्रज्वल कर।
ना कर खुद को विचलित इतना,
खुद को तू थोड़ा सृजल कर।
कोमलता के रहे अस्त्र तेरे।
वाणी को तू अपनी मृदुल कर।
बढ़ा तू सम्मान अपने स्वाभिमान का,
ना बन कारण तू किसी के भी अपमान का,
सामने देख सुखों का संसार खड़ा है,
बे वजह ही तू बेबस खड़ा है,
तेरी खुशी ही तेरी जीत है,
यूँ न दुःख के शत्रु को तू प्रबल कर।
जीत की तू ऊर्जा भर ले नई,
ये सोचकर आगें होगी प्रसन्नतायें कई।
नए बंधन नए सपने आशाएं है तेरी नई।
कभी न हो कमजोर वो विश्वास की डोर,
अपने नए बंधन की गांठ को प्रबल कर।
ये हाथ तेरी ओर से बढ़ा है,हमेशा के लिए ।
थाम ले उसे और अपने इरादे अटल कर।
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