
कुछ उलझे-सुलझे ख़्वाब हैं,
बिखरे रहते दिन-रात हैं,
ना ही इनको कहीं चैन है,
ना ही आंखों में रैन है ।
जेबों में हाथ छिपाये ये,
जब देखो तकते रहते हैं,
जैसे इनका कोई रूठ गया,
भीड़ में कोई छूट गया ।
कभी फूलों की बगिया जैसे,
महके मुस्काते ख़्वाब हैं,
कभी खेतों की मेढ़ों पर बैठे,
गुमसुम से दिखते ख़्वाब हैं।
निकले थे जब ये घर से ,
अम्मा इनको तब बोली थी,
देख सम्भल के रहना तुम,
झूठे किस्सों से बचना तुम ।
हर पल की खींचा तानी है,
कुछ मानी कुछ बेमानी है,
इनमें ना तुमको पड़ना है,
अपनी ही धुन में रहना है ।
भोले-भाले इन ख़्वाबों को,
आखिर इतनी अक्ल कहां,
ऐसी बातें ना समझ सके,
चोट लगी तो चटक गये ।
इधर-उधर बस भटक रहे,
अब धूप-छांव में टहल रहे,
जब थकते सुस्ता लेते हैं,
अपनी ही कह-सुन लेते हैं।
यादों की बदली में जैसे,
ये लुक्का-छुप्पी खेले हैं,
कभी इंद्रधनुष सा चमक गये,
जब भर गये तब बरस गये।
आंखों में राज छुपाये हैं,
जब देखो तब मुस्काये हैं,
कुछ अतरंगी ये ख़्वाब हैं,
उलझे-सुलझे दिन रात हैं ।
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