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वक़्त कहाँ अब कुछ पल दादी के किस्सों का स्वाद चखूं,
वक़्त कहाँ बाबा के शिकवे, फटकारें और डांट सहूँ।
कहाँ वक़्त है मम्मी-पापा के दुःख-दर्द चुराने का,
और पड़ोसी के मुस्काते रिश्ते खूब निभाने का।
रिश्तों की गरमाहट पर कब ठंडी-रूखी बर्फ जमी,
सोंधी-सोंधी मिट्टी में कब, फिर लौटेगी वही नमी।
जब पतंग की डोर जुड़ेगी, भीतर के अहसासों से,
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