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माँ... जब भी तुम को याद करूँ
आ जाती हो म्रदु स्पंदन सी,
सौम्य सरल संवादों वाले
प्यारे से एक बंधन सी.
क्या भूलूँ क्या बिसराऊं मैं
क्यों कर तुमको रच पाऊँ मैं
कुछ शब्दों और संवादों से
चित्रित कैसे कर पाऊँ मैं.
तुम प्रेम मयी, तुम अर्थ मयी
आनंद मयी इक गरिमा हो
तुम सम्बल हो इस जीवन का
देवालय की सी प्रतिमा हो.
अवलोकन करते कभी कभी
आलोचक जब बन जाती हूँ,
अवचेतन मन में आकर तुम
यह बात पुनः दोहराती हो...
गुण को देखो बस, दोष नहीं
ये मूल मन्त्र है जीवन का,
शैली तो केवल रचना है
भावों के अतुल समुन्दर का.
मेरे सपनों में यदा कदा
तुम अनायास आ जाती हो,
अपनी दो निश्छल आँखों से
बिन बोले कुछ कह जाती हो.
एक मूक प्रशंसक बन कर मैं
बस तुम को ताका करती हूँ,
प्रतिबिम्ब तुम्हारा बन कर माँ
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