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यदि कविताओं के पंख होते
वो विचरती स्वतः ही
लखनऊ की इमारतों से उड़कर
दार्जिलिंग की पब्लिक लाइब्रेरी में
श्वेत शीतल धुंध में
तुम्हारे उँगलियों के बीच फँसे
सिगरेट के कश लेती
या अटक जाती सलीके से
तुम्हारे कोट के सिल्वर ब्रोच पर
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