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वो उँगुलियाँ कब तक,
कोमल रहेंगें, शायद तक तक,
जब तक हमारा बचपन हो,
अब तो उनमें हल्की,
झुर्रियाँ और दरारें पड़ने लगी है।
फिर भी बेचैन होने पर,
मन इन्ही उँगुलियों
को ही ढूँढता है॥
…..मुकेश….
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