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दूसरों के ऊंचे मकान से जलता है आदमी
क्यों वक्त से पहले ही ढलता है आदमी
लगी सी रहती है भागदौड़ जिंदगी में
क्यों आज भी नींद मे चलता है आदमी
ये रुपया पैसा काम नही आएगा हमेशा
फिर क्यों गठरी ढो रहा है आदमी
मानवता के गुण खो गए है कहीं
दिन वासना के जी रहा हैआदमी
थोड़ी सी जमीन ही तो चाहिए बाद में
फिर जमीन के वास्ते लड़ रहा हैं आदमी
अपनेपन की चादर में जीना अच्छा है
बस एक चिंगारी से सुलगता है आदमी
मिल जाएगी मंजिल इस सफर में राही
क्यों आगे निकलने की दौड़ में है आदमी
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