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चलता रहा ख्वाबों का कारवां, कि
बंदिशों से परे कहीं तो नूर होगा,
वाह रे खुदा जिस्म को साए की भी संगत न थी।
सुरमई भी छुप गई कहीं चिलमन में,
रौशनी को कायनात की भी बरकत न थी।
करता रहा चिराग से रौशन , कि
अंजान सफर में कहीं तो किनारा होगा,
वाह रे खुदा कश्ती को तारों की भी झलक न थी।
फिर भी चलता रहा उम्मीद में कारवां, कि
बंदिशों से परे कहीं तो नूर होगा।
वाह रे खुदा तेरे गुमान की भी फलक न थी।
नाइंसाफी की इंतिहा है ये, कि
कश्ती को तारों की भी झलक न थी।।।
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