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खुद लिखते हैं अल्फाज़ वो रेत के किनारों पर,
और मौज को जालिम का नाम दिया करते हैं।
पूछते हैं शाख से टूटे हूए पत्ते की हसरत,
जानकार कि मुकाम तय हवा के झोंके किया करते हैं।
होते हैं वफा ए सौदों के धोकों से वाकिफ,
लेकिन पैमानों मैं डूब जाने का बहाना किया करते हैं।
और कैसे बयां करे इस इल्जाम को ये शायर कि,
स्वर्ण चमक सी चाह मैं झुलस जाते हैं परवाने ,पर,
बेमतलब ही शमा को बदनाम किया करते हैं।
- मानवेन्द्र सिंह राना
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