
स्त्री का प्रेम
भावना है समर्पण की,
सबकुछ केवल अर्पण की,
माँगना ना चाहें कुछ भी,
केवल बदले में कुछ पल,
जो हों बिलकुल निश्छल।
जैसे अम्बर है अनंत,
और सागर का ना कोई अंत,
मन भी उसका इसी प्रकार,
करता सदा ही प्रेम अपार।
ना बंधे तुमको किसी डोर से,
ना रोके तुमको किसी छोर से,
उन्मुक्त गगन के पंछी की तरह,
सुख पाती तुमको सुखी देखकर।
समय के गर्भ में जो भी हो,
कभी किसी ने देखा नहीं,
केवल यही समझ कर उसने,
मुख प्रेम से कभी मोड़ा नहीं।
रूप अनेक हैं प्रेम के उसके,
भाव सदा नदी सा निर्मल,
त्याग किंतु जब चाहे जीवन,
बन जाये मन पर्वत सा अटल।
शब्दकोश कम पड़ जाएँगे,
व्याख्या करने जब हम जाएँगे,
वह भावना तो अतुलनीय है,
कही ना कहीं हर जीवन ऋणी है।
दो पंक्तियों में समाया सत्य हैं,
समझाना जिसको बहुत सरल हैं।
परिभाषा केवल इतनी सी,
भावना है समर्पण की,
सबकुछ केवल अर्पण की….
#मंजूषा#
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