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मन बैरागी हुआ है
एकांतवासी हुआ है
पंछी संग उड़ते उड़ते
क्षितिज के पार गया है
न जाने कब लौटना हो
शायद फिर कभी न हो
थामे रखना उन धागों को
जिन्हें बाँध के उड़ गया है।
मं शर्मा( रज़ा)
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