
…कोमल सपने से ही तो शुरुआत हुई थी। इतनी कोमलता की शायद आदत नहीं थी सो हमने उसे बहुत भीतर दबा दिया था। लोग हँसी उड़ाएँगे के डर ने उस सपने के बीज को तिड़का दिया। कोमल सपने का एक पौधा फूटा, पर उसका रंग हरा नहीं था। उसके रंग माँ की पुरानी पड़ गई साड़ियों से मिलते थे… उसके आँचल से, घर की धुँधली पड़ गई दीवारों से, गाँव की गलियों से, कश्मीर की बर्फ़ से, आसमान से।
उस पौधे के रंगों में नहीं जिए जा सके जीवन की सौंधी ख़ुशबू थी। फूल नहीं थे। फूल खिलने में अभी बहुत वक़्त था। यह उन कोमल सपनों की सुबहें थीं जिनकी जड़ों में बस एक घनघोर बारिश का इंतज़ार था।
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थोड़े को बहुत नहीं मान सकते, पर बहुत के आगे पूर्णविराम लगाना भूल जाते हैं। घर से कोई उठकर चल देता है तो ख़ाली जगह में बचे रह गए सामान गूँजते रहते हैं देर तक। किचेन में खड़े दूर तक देखने की आदत में सपना जैसा एक शब्द जुगनू की तरह कभी दिखता है, कभी ओझल हो जाता है। पलक झपकने और दिन बीत जाने के बीच कहीं किसी थमे तलाब में कमल खिला रहता है। जीवन एक फलाँग दूर है, बस एक क़दम आगे रखने की देर में…
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आसमान देखते ही आँखें चील तलाशती हैं। उस चील की कहानी में मेरा बचपन शुमार है। श्रीनगर की गलियों में, पिता की उँगली पकड़कर जब मैं उनसे कहता कि रात एक डरावना सपना देखा तो वह कहते कि अपने डरावने सपने चील को सुना देना, वह उसे दूर बादलों में छोड़ देगी, फिर वह वापस नहीं आएँगे। मैंने कहा ऐसा थोड़े ही होता है! पिता बोले कि देखो तुम्हें मानना पड़ेगा, यह जीवन गणित की equation की तरह है, उसे हल करने के लिए माना कि… से शुरुआत करनी पड़ती है। माना कि चील तुम्हारा सपना सुन रही है, या अगर तुम मान लो कि मैं तुम्हारे साथ नहीं हूँ। मैंने मान लिया कि श्रीनगर की इस गली में पिता मेरे साथ नहीं हैं और मेरे पिता ग़ायब हो गए थे।
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मेरे भाई और मेरी उम्र कुछ आठ या नौ साल की होगी, जब हमने कश्मीर छोड़ा था। कश्मीर छोड़ने का हमें उतना दुख नहीं था जितना तितली से बिछड़ने का। तितली, हम दोनों भाइयों का पहला प्यार था। जाते वक़्त मैं ख़ुद को संभाल नहीं पाया और तितली के सामने रो दिया, तभी मेरा भाई आया और उसने कहा चलो जाना है, और जाते वक़्त उसने तितली से उसकी एक श्वेत-श्याम तस्वीर माँग ली। मैं उस वक़्त भाई की इस हरकत पर बहुत हँसा था और सच्चे प्यार पर ज्ञान भी बघारा था, पर बाद में मुझे मेरी मूर्खता का एहसास हुआ।
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नदी से देर तक बातें करने की आदत बन गई थी। हमेशा लगता कि मेरी सारी बातें नदी बहाकर दूर ले जाएगी। उस दूर में जवाहर टनल जैसी लंबी अँधेरी गुफा के बाद बहुत सारा उजाला होगा। उस उजाले में जो जिस रंग का है, वह उस रंग का दिखेगा। ‘मैं’ कहीं गुम जाएगा और हमेशा ‘हम’ जैसी बातें होंगी। सब कुछ उलझा हुआ, सुलझा हुआ सुनाई देगा… उस सुलझे हुए की अँगड़ाई में मन पतंग होगा। जिस दिन मैं उस पतंग को वापस इस नदी में बहा दूँगा, उस दिन यह नदी मुझे माफ़ कर देगी।
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कहानी कहने की कल्पना में सबसे पहले नदी दिखती है। नदी किनारे, पीपल के बाबा एक लौंडे की हाथ की रेखाओं में तुरंत भविष्य में आने वाला ख़तरा पढ़ते हैं। भगवान ही बचाए की गहरी साँस में वह ऊपर देखते हैं, तभी उसी पेड़ से एक लड़की कूद पड़ती है— अपनी चुनरी सँभालते हुए। उम्र तय करने में वह जवान हो चुकी होती है। तभी बाबा लौंडे के दूसरे हाथ में उस लड़की की छूट गई चुनरी देखते हैं। पिंजरे में बंद तोता चीखता है, ‘‘फिर वही कहानी…?’’ पीपल से आवाज़, ‘‘तू बदलकर देख ले…।’’ इस जवाब से आहत बाबा लौंडे को उसी चुनरी से खींचकर पेड़ से बाँध देते हैं और ख़ुद लड़की के पीछे भाग लेते हैं। तोता ख़ुश होता है और पीपल के पत्ते झड़ने लगते हैं। कालांतर में पता चलता है कि बाबा लड़की के प्रेम में पड़ जाने से दाढ़ी-मूँछ कटाकर लौंडे हो जाते हैं, और पेड़ से बँधा लौंडा तोते का ख़याल रखते-रखते अपनी दाढ़ी बढ़ा लेता है। अब पीपल अपना विस्तार बढ़ा चुका है और तोता जब भी चीख़ने जाता, ‘‘फिर वही कहानी…’’ तो उसके मुँह से सीटी बजने लगती!
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हम गाँव आ चुके थे। कश्मीर अब हमारे क़िस्सों में था, पर जब-जब कश्मीर की बात उठती हम दोनों को तितली उड़ती हुई दिखती। मेरा भाई तुरंत दूसरे कमरे में चला जाता। बाहर बैठा मैं जानता था कि वह भीतर तितली की श्वेत-श्याम तस्वीर निहार रहा होगा, और तब से सालों तक मैं तितली के साथ अपने रोने पर पछताता रहा। मुझे मेरे भाई को बहुत ख़ुश करना पड़ता था, तब कहीं जाकर वह मुझे किसी दुपहर तितली को निहारने देता था। बशर्ते कि मैं तस्वीर को छू नहीं सकता था और घूरना बिल्कुल मना था। वह शायद उसकि स्कूल आईडी से निकाली तस्वीर थी। वह उसमें परी की तरह लगती थी। लगता था कि अभी तस्वीर से बाहर निकलेगी और कहेगी चलो उड़ते हैं…।
भाई के निक्कर की जेबों में वह तस्वीर ज़्यादा नहीं टिक पाई। हम भी गाँव की गलियों में भटकने लगे थे। तितली उड़ गई थी। अभी कुछ साल पहले पिता कश्मीर की अपनी अंतिम यात्रा पर थे और वह तितली के परिवार से मिले। हम दोनों भाइयों के मुँह से निकला, ‘‘तितली कैसी है?’’ पिता ने कहा, ‘‘उसकी शादी हुई और पहले बच्चे की डिलेवरी में उसके पैरों ने काम करना बंद कर दिया, पति छोड़ चुका था, डिप्रेशन की वजह से कुछ समय पहले वह चल बसी।’’ हम दोनों भाई और कुछ भी जानना नहीं चाहते थे।
बहुत देर की चुप्पी के बाद मेरा भाई उठा और भीतर कमरा में चला गया। मुझे लगा कि वह भीतर तितली की तस्वीर निहार रहा होगा। पहली बार इस विचार ने मुझे तकलीफ़ नहीं पहुँचाई। देर तक सब सन्न रहा, फिर बहुत धीरे से—ताकि कोई सुन न पाए—मैंने उसका नाम बुदबुदाया, ‘‘तितली’’ और मैं ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर उठ चुका था।
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मैं इसकी ख़ुशबू पहचानता हूँ—यह मेरे ख़ून में है। जब मैं अपनी माँ के क़रीब होता हूँ तो किन्हीं बहुत सुंदर क्षणों में एक ख़ुशबू उनके
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