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ज़हीर ही ज़हर घोल रहें हैं ज़िंदगी में हमारी
अब हम कैसे ही किसी पर एतबार करते..
ये कसमें वादे जानें वालों को नहीं रोक सकती
लोग छोड़ जाते हैं वो चीज़ जो उनको बेकार लगते..
उसे से दोस्ती टूटने का भी खौफ था हम को
उस से कैसे हम अपनी उल्फत का इज़हार करते..
उस का दौड़ कर आ कर मुझ को छत से झंकना
हम ये कैसे मान ले कि वो हम से प्यार नहीं करते..
क़ाफिया,रदीफ़,मिस्रा,शेर,मतला,बहर सब हो तुम
अगर तुम ही न होते तो हम ग़ज़ल कैसे लिखते..
मैं जब कभी भी गुज़रा हूं उनकी गली से
वो हमें अपनी छत से ही इशारा करते..
तुम क्या समझोगे कि हम पर क्या गुज़री हैं
तुम तो अब हम से कभी बात भी नहीं करते..
इमसाल होली भी औरों की तरह बीतेगी 'अंकित'
वो अगर यहां होती तो हम कुछ ख़ास करते..
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