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आ गया हूं फिर से एक बार शहर में तेरे
तेरी उदास इन गलियों और चौबार में तेरे
तुझ को अकेला ही निकलना पड़ेगा घर से
कोई भी यहां साथ नहीं देगा सफ़र में तेरे
मिज़ाज कुछ बदला हुआ हैं शहर का तेरा
एक हमही नहीं जो आए थे दीदार को तेरे
कब आएगा जानें वालें तूने ये बताया नहीं
सदियों से बैठा उसी राह पे मुंतजिर में तेरे
एक दफ़ा भी अपना नहीं कहा तुमने मुझको
आख़िर मैं क्यूं सब कुछ लुटा दूं निसार में तेरे
ज़िंदगी में उलझने तो पहले ही कम नहीं थी
और तो और फंसा हुआ अगर - मगर में तेरे
तुझ से दूर हो कर जीना हम को गंवारा नहीं
किसी रोज़ हम बंधना चाहते हैं इज़्तिरार में तेरे
फ़रेब दे कर अपनी मोहब्बत जीत सकता था
पर ऐसा कुछ सीखा ही नहीं मैंने प्यार में तेरे
उन्हें भी शिकवा है कि तू मिलता नहीं 'अंकित'
और कुछ कमी ही नहीं हो रहीं हैं फ़ख्ऱ में तेरे
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