“उधेड़-बून”
गोधूली के समय, विचार कुछ मन में लिये,
चाय का प्याला, हाथों में अपने लिए,
हृदय को ना जाने क्यूँ यूहीं मैं टटोल रहा,
उलझते जीवन की प्रहेलिका सुलझाने की,
उधेड़ बून में क्यूँ समय व्यर्थ मैं कर रहा।
समय चक्र कैसा चल रहा तीव्र गति से,
रिश्ते तोले जा रहे स्वार्थ के तराज़ू से,
जीत उसी की है इस अनोखे खेल में,
मूल्य जीवन के ना रहे जिसके हृदय में।
तपोबल का नहीं, अर्थ का यश है चलित,
मनुष्य एक दुजे से क्यूँ हो रहा व्यथित,
क्या सुख से बड़ा ना बचा जीवन का निमित,
जलता देख घर किसी का, क्यूँ होते हर्षित।
संभवतः राग, द्वेष, हिंसा, निंदा, लोभ,
रच बस रहे मनु के हर अणु, हर रोम रोम,
घिर रहा तिमिर से देखो कैसे यह व्योम,
जलते हस्त करने से, परहित के लिए होम।
समरसता, सद्भावना, बिक रही भरे बाजार,
मानव क्यूँ कर रहा स्वयं पर यूँ अत्याचार,
रख लज्जा परे, आँखों में बढ़ता व्यभिचार,
मनु, भूल बैठा
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