
“उधेड़-बून”
गोधूली के समय, विचार कुछ मन में लिये,
चाय का प्याला, हाथों में अपने लिए,
हृदय को ना जाने क्यूँ यूहीं मैं टटोल रहा,
उलझते जीवन की प्रहेलिका सुलझाने की,
उधेड़ बून में क्यूँ समय व्यर्थ मैं कर रहा।
समय चक्र कैसा चल रहा तीव्र गति से,
रिश्ते तोले जा रहे स्वार्थ के तराज़ू से,
जीत उसी की है इस अनोखे खेल में,
मूल्य जीवन के ना रहे जिसके हृदय में।
तपोबल का नहीं, अर्थ का यश है चलित,
मनुष्य एक दुजे से क्यूँ हो रहा व्यथित,
क्या सुख से बड़ा ना बचा जीवन का निमित,
जलता देख घर किसी का, क्यूँ होते हर्षित।
संभवतः राग, द्वेष, हिंसा, निंदा, लोभ,
रच बस रहे मनु के हर अणु, हर रोम रोम,
घिर रहा तिमिर से देखो कैसे यह व्योम,
जलते हस्त करने से, परहित के लिए होम।
समरसता, सद्भावना, बिक रही भरे बाजार,
मानव क्यूँ कर रहा स्वयं पर यूँ अत्याचार,
रख लज्जा परे, आँखों में बढ़ता व्यभिचार,
मनु, भूल बैठा क्यूँ, मनु के दिए सुविचार।
साधु के भेष में, बहुरूपिये का होता सत्कार,
ना बची सभ्यता, ना रहा हृदय में परोपकार,
अच्छाई का स्वांग रचता, मनु उच्च कलाकार,
मात-पिता, गुरु-प्रभु से, ना रहा सरोकार।
अकस्मात्! एक बिजली सी कौंधी मेरे मन में,
विचार कई जब घुमड़ रहे थे इसी उधेड़ बून में,
क्या जीवन मेरा भी यूहीं रहेगा विसंगतियों में,
या समर्थ बनूँगा, आदर्श मनुष्य इस जीवन में।
चित्रण, अवलोकन, कर रहा था मैं स्वयं से,
परिलक्षित होने लगे अवगुण, हृदय-प्रांगण से,
लज्जित हो रही थी तार तार होती आत्मा मेरी,
मृत्यु की बू आने लगी नैतिकता के मूल्यों से।
पैर जहां थे जम गए, रुधिर का वेग थम गया,
अश्रुओं की एक अविरल धारा सी बहने लगी,
मेरे नश्वर शरीर की आत्मा की शुद्धि होने लगी।
अग्नि को समर्पित किए मेरे अवगुण सब,
विचारने लगा चाय की प्याली को किनारे रख,
जीवन चक्र के षड्यंत्र से बंधे मनु हम सब,
स्वछंद कब उड़ेगें नीले अंबर में अब कैसे सब।
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