
“निःशब्द”
हैं केवल दो शब्द
मन के भाव समाए जिनमें
थाह नहीं जिसका
अंतर्द्वंद समेटे खुद में।
कभी अपनों की बातें
बातें कभी अनजानों की
करती प्रतिदिन
फिर भी खड़ा रहा मौन
निःशब्द! मैं ना जाने क्यूँ?
देखे गाहे-बगाहे मेले कई
जीवन के वो रंग कई
व्याख्या करूँ कैसे
विचार अनवरत बुझ रहे
फिर भी खड़ा रहा मौन
निःशब्द! मैं ना जाने क्यूँ?
कभी हृदय भेदते कटाक्ष
कभी नेत्र करते अट्टहास
प्रेषित करते, अपने क्यूँ?
कचोटते अंतरात्मा को
फिर भी खड़ा रहा मौन
निःशब्द! मैं ना जाने क्यूँ?
क्या वो युगल प्रेमी थे?
थे समर्पित एक दुजे को
प्रेम विहंगम, हृदय का संगम
क्यूँ करते विच्छेद सम्बंध
अविरल बहा रहे अब नीर
ना बुझ रही मन की पीड़
लांघ दी वचनों की लकीर
तिरस्कृत करते एक दुजे को
फिर भी खड़ा रहा मौन
निःशब्द! मैं ना जाने क्यूँ?
धर्म-पंथ के जंजाल
क्यूँ हो रहे महा-विकराल
मानव से दानव का
ना बचा कोई अंतराल
रक्त पिपासा से लिप्त
शव हो रहे विकृत
उनके धुएँ से झांक रहा
मृत्यु तांडव नाप रहा
फिर भी खड़ा रहा मौन
निःशब्द! मैं ना जाने क्यूँ?
अमीर-गरीब की लड़ाई
आग यह किसने लगाई
घुट रहा दिन प्रतिदिन
निज-द्वन्द में घिरा हुआ
बेसहारा कोई, निर्लज्ज कोई,
समाज गर्त में गिरता हुआ
ना अधिकार निर्बल को
साधन उपलब्ध दुर्जन को
फिर भी खड़ा रहा मौन
निःशब्द! मैं ना जाने क्यूँ?
ना रहा महत्व प्रकृति का
ना रहा कोई प्रेषक भक्ति का
ना रहा प्रेम स्पंदन हृदय में
ना रहा सुख जीवन में
रहा बचा क्या अब?
रुदन नश्वर्ता का
पूजन सौंदर्यता का
नग्न नाच हिंसा का
वाक्-पुराण परनिंदा का
वाणी में मिला हलाहल
प्रदर्शन उद्दण्डता का
फिर भी खड़ा रहा मौन
निःशब्द! मैं ना जाने क्यूँ?
निस्सीम अंधेरों से घिरा
मानवता के सूर्य को
अस्त होते देख रहा
फिर भी खड़ा रहा मौन
निःशब्द! मैं ना जाने क्यूँ?
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