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बग़ावत


एक लम्बे समय से

था शिथिल कुछ मुरझाया सा

ना जाने किस शून्य भाव में

था भटका हुआ मैं

ना जाने किस विचार में

था बहका हुआ मैं। 


अकस्मात्!

एक बिजली कौंधी

मन मस्तिष्क में मेरे

कुछ हलचल मची

मौन पड़े अधर मेरे

प्रखर हुए ना जाने क्यूँ?

बंध जो थी आँखें मेरी

खुली आज ना जाने क्यूँ?


विचार अनेकानेक 

लगे उमड़ने जैसे

मेघ उछृंखल

तिमिर था जो पसरा 

लगा छँटनेमेरे अंदर। 

उतार फेंकी पट्टिका

जो पहन रखी थी आँखों पर

था जागृत हुआ आज

जो सोया हुआ था

कई युगांतर। 

खोल फेंकी वो बेड़ियाँ

जो जकड़ी थी मुझे

ना जाने कितने संतापो से

आज नूतन गीत 

बग़ावत का

है सृजित हो रहा

मेरी कलम से।


अब शिराओं में रक्त 

है खोल रहा

अब भुजाओं में

है बल बोल रहा

अब उखाड़ फेंकूँगा 

उन आसक्त शक्तियों को

जिनसे मनुष्य 

का मन डोल रहा। 


किंचित!

आरम्भ किससे करूँ

प्रचण्ड नाद कैसे करूँ

अब भी तिमिर है पसरा हुआ

लौ बग़ावत की

कैसे प्रज्वलित करूँ। 


हाँदेखा चहुं और जब मैंने

देखा हर और 

दुराग्रह से ग्रसित 

देशसमाज मैनें

अब एक एक कर 

चिन्हित कर रहा

विभत्सता की थाह

नाप रहा। 


चला उठ अब संकल्प लिए!


आज शंखनाद करूँगा

धर्म के ठेकेदारों से भिड़ूँगा

और 

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