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Kumar VishwasPoetry4 min read

लोकतंत्र बस चीख रहा है

Kumar7194Kumar7194 February 14, 2022
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लोकतंत्र बस चीख़ रहा है

और पतन अब दीख रहा है


सत्ता लोलुपता है व्यापित

राजनीति केवल है शापित

जनता केवल लूटी जाती

बात पड़े पर कूटी जाती

जनता की आवाज़ नहीं है

कोई नया आगाज़ नहीं है

चौथा खंभा चाटुकार है

बढ़ गया देखो अनाचार है

अधिकारों की बाते खोईं

बिना बात के आँखें रोईं


कृषकों की बस दशा वही है

रूप बदलकर दशा वही है


भाई-भाई लड़ बैठे हैं

इक-दूजे पे चढ़ बैठे हैं

हवा में घोला ज़हर किसी ने

ढाया सब पर क़हर किसी ने

शांति डरी-सहमी रहती है

कांति उड़ी-वहमी रहती है

सालों से जो रहता आया

गैर उन्हीं को फिर बतलाया

आपस में फिर फूट डालकर

दो हिस्सों में बंटवाया


शिक्षा की परिभाषा बदली

जन-जन की अभिलाषा बदली


नेता-चोर-उचक्के-सारे

मजलूमों को चुन-चुन मारें

गाँधी वाला देश नहीं हैं

बाबा-से परिवेश नहीं है

अटल इरादे माटी हो गए

झूठों की परिपाटी हो गए

नेता जी के सपने खोए

भगत-आज़ाद फूटकर रोए

नेहरू ने जो सपना बोया

लगता केवल खोया-खोया


राम-नाम से लूट मची है

अपनों में ही फूट मची है


रहमानों ने कसमें खाईं

बिना बात के रार बढ़ाई

दो हिस्सों में बँट गए सारे

कल तक थे जो भाई-भाई

राजनीति के चक्कर में आ

समता, एकता भी गँवाई

नेता अपनी रोटी सेंकें

गाँव गली और गलियारों में

उनको दिखता प्रेम है केवल

बंदूकों और तलवारों में


हमको आपस में लड़वाकर

खूब मलाई मिलकर खाते


इक थाली के चट्टे-बट्टे

कुछ सिंगल कुछ हट्टे-कट्टे

संसद एक अखाड़ा बनता

वाणी-शर बेशक फिर तनता

जनता को धीरे बहलाते

उनके नायक बन-बन जाते

धूल झोंककर आँखों में भी

ख़ुद को हितकारी बतलाते

धीरे-धीरे पेट बढ़ाते

और खज़ाना चट कर जाते


इक रोटी का दसवां हिस्सा

जनता हित भी काम कराते


कल तक रहते थे जमीं पर

आज आसमाँ चढ़-चढ़ जाते

निश्छल की विनती बस इतनी

इनकी बातों में मत आना

दया,धर्म,सच्चाई का ही

मिलके सब बस साथ निभाना

तोड़े जो भाईचारे को

इस अखंड भारत प्यारे को

उसका हक-सम्मान छीनकर

सत्ता से निष्कासित कर दें


तहज़ीब-मुहब्बत बनी रहे

और तिरंगा-शान बढ़े


परचम फहरे विश्व-पटल पर

आन-बान-गुणगान बढ़े

इक उंगली में शक्ति कहाँ वो

जो मुट्ठी बनकर आ जाए

लोकतंत्र अब हाथ हमारे

संविधान भी हमारे सहारे

आओ मिलकर देश बचा लें

आओ मिल परिवेश बचा लें

बचा-खुचा बस प्यार बचा लें

प्रीत-रीत त्योहार बचा लें


देशप्रेम की डोर बचा लें

प्यारे-न्यारे छोर बचा लें


अपने कर्तव्यों को समझें

सबके मन्तव्यों को समझें

ये देश सभी का कल भी था

और आने वाले दिन में रहेगा

कौन किसे फिर चोर कहेगा

आने वाला दौर कहेगा

देशप्रेम सबसे ऊपर है

इससे आला कोई नहीं

देश रहे महबूब सदा गर

और निराला कोई नहीं


मातृभूमि-रज भाल लगाकर

निश्छल बस इक बात कहे


प्यार पनपता रहे यहाँ पर

सुख-दुःख बाँटें इक-दूजे के

आओ गले अब मिलकर साथी

अपना प्यारा देश बचाएँ

फिर से महक उठे ये धरती

इक ऐसा परिवेश बनाएँ

प्यारा अपना देश बनाएँ

न्यारा अपना देश बनाएँ

आओ अपना देश बनाएँ

मिलके अपना देश सजाएँ

आओ साथी ! आओ साथी!

आओ साथी ! आओ साथी!

मिलके प्यारा देश बचा लें।


 अनिल कुमार निश्छल

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