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मीरा के आर्त स्वर में
लिपटी हुई ये साँझ
और आसमाँ में बिखरे हुए
शाम के ये अधूरे रंग
सामने मेज़ पे पड़ी
डायरी के पन्ने परलिखी हुईं
आधी अधूरी पंक्तियाँ
एक हाथ में आधी बची हुई
कॉफी का मग
तो दूसरे हाथ में
आधी अधूरी जली हुई सिगरेट
और राख हुए रिश्ते के
धड़कन में बचे हुए कुछ
यादों के अधूरे से लम्हें
समझ में नहीं आ रहा हैं
ये धुँआ आखिर..
कहा से निकल रहा ?!
किरण के.
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