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प्रेमचंद की लिखी फिल्म ‘द मिल/मजदूर’ का किस्सा - अजय ब्रह्मात्मज

OpinionOpinion October 5, 2020
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मुंशी प्रेमचंद की लिखी फिल्म ‘द मिल/मजदूर मुंबई में 5 जून 1939 को इंपीरियल सिनेमाघर में रिलीज हुई थी. हालांकि यह फिल्म 1934 में ही तैयार हो चुकी थी, लेकिन तब मुंबई के बीबीएफसी(बांबे बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था. रिकॉर्ड के मुताबिक सितंबर 1934 को यह फिल्म सेंसर में भेजी गई. वहां 1 और 5 अक्टूबर को दो बार फिल्म देखी गई. सेंसर बोर्ड ने कुछ कट और सुधार की सलाह दी. निर्देशानुसार फिल्म की नई प्रति जमा की गई, जिसे 23 और 25 अक्टूबर को रिव्यू कमिटी ने देखा. देखने के बाद बोर्ड के सचिव ने लिखा ‘बोर्ड की राय में फिल्म का विषय मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्र में प्रदर्शन के उपयुक्त नहीं है इस फिल्म को अगले 6 महीनों तक प्रदर्शन का प्रमाण पत्र नहीं दिया जा सकता.’ 

बीबीएफसी के निर्देश से .द मिल/मजदूर’ में बार-बार कट और सुधार किया गया, लेकिन हर बार किसी ने किसी कारण से फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति नहीं मिली. हर बार थोड़ी फेरबदल से यही कहा गया कि मुंबई के हालात ऐसी फिल्म के प्रदर्शन के लिए ठीक नहीं है. उस दौर को याद करें तो मुंबई के अधिकांश सिनेमाघर टेक्सटाइल मिलों के आसपास थे. इस वजह से भी बीबीएफसी को लगता रहा होगा कि इस फिल्म के प्रदर्शन से मिल मजदूर अपने अधिकारों को लेकर जागृत होंगे और हड़ताल पर चले जाएंगे. कुछ लेखों में यह भी संकेत मिलता है कि 1934 में यह फिल्म लाहौर सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र लेकर उत्तर भारत के सिनेमाघरों में पहुंची. लाहौर के सेंसर बोर्ड में यह फिल्म 120 फीट कट करके जमा की गई थी. कहते हैं प्रेमचंद के प्रिंटिंग प्रेस के मजदूरों ने फिल्म से प्रेरित होकर हड़ताल कर दी. मुंशी प्रेमचंद के प्रिंटिंग प्रेस में हड़ताल का हवाला मिलता है, लेकिन क्या वह इस फिल्म के प्रभाव में हुआ था. अगर ऐसा हुआ होगा तो यह रोचक प्रसंग है. 

अजंता मूवीटोन के निर्माताओं ने बीबीएफसी के निर्देश से फिल्म के बाल काट दिए और फिर से प्रमाण पत्र के लिए जमा किया. फिल्म के कारोबार के लिहाज से मुंबई में प्रदर्शन का विशेष कारण था. आंकड़ों के अनुसार तब फिल्मों के व्यवसाय का 47% मुंबई से ही होता था. आज भी कमोबेश यही स्थिति है. हिंदी फिल्मों के 35-40% हिस्सा मुंबई का होता है. इस बार फिर से मनाही हो गई. बताया गया कि फिल्म में मिल का जीवन और मैनेजमेंट का चित्रण उपयुक्त नहीं है. इस फिल्म के प्रदर्शन से नियोक्ता और मजदूरों के बीच का संबंध खराब हो सकता है. सीधा तात्पर्य यही था कि फिल्म के प्रभाव में मजदूर भड़क सकते हैं. कुछ समय के बाद निर्माताओं ने फिल्म का नाम बदलकर ‘सेठ की बेटी’ रखा और इस नाम के साथ आवेदन किया. फिर से मंजूरी नहीं मिली. मुमकिन है बीबीएफसी के सदस्य फिल्म की कहानी समझ और पहचान गए हों. अब की बीबीएफसी ने कहा कि यह फिल्म मजदूरों के असंतोष को उत्तेजित कर सकती है. अच्छी बात है किअजंता मूवीटोन के निर्माता बार-बार की नामंजुरी के बावजूद निराश नहीं हुए. उल्लेख मिलता है कि सेंसर बोर्ड के एक सदस्य बेरामजी जीजीभाई मुंबई मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष थे. उन्हें यह फिल्म अपने एसोसिएशन के सदस्यों के हितों के खिलाफ लगती होगी. 

आखिरकार 1937 में कांग्रेस पार्टी की जीत हुई तो आज की तरह बीबीएसी का फिर से गठन हुआ. नए सदस्य चुने गए. नए सदस्यों में बॉम्बे टॉकीज के रायसाहब चुन्नीलाल और चिमनलाल देसाई भी थे. फिल्म फिर से सेंसर के लिए भेजी गई. फिल्म 1200 फीट काट दी गयी थी. फिल्म के कथानक में तब्दीली कर दी गई. क्लाइमेक्स का सुर बदला दिया गया. तब एक हिंदी अखबार ‘विविध वृत्त’ में हिंदी समीक्षक ने लिखा कि ‘राज्य सरकार ने भवनानी को कहा कि गांधी का रास्ता ले लें. फिल्म रिलीज हो जाएगी और यही हुआ. फिल्म की तब्दीली को बीबीएफसी के नए सदस्यों ने स्वीकार किया और रिलीज के अनुमति मिल गई. अजंता मूवीटोन ने अपने प्रचार में लिखा कि हड़ताल होने से रोकने के लिए मालिक और मिल मजदूर एक साथ ‘द मिल/मजदूर’ फिल्म देखें. 


बीबीएफसी ने पांच सालों तक लगातार जिस फिल्म को दर्शकों के बीच प्रदर्शित करने के लिए उचित नहीं समझा, क्योंकि वह मजदूरों को भड़का कर हड़ताल के लिए प्रेरित कर सकती है और मिल मालिकों के खिलाफ माहौल रच सकती है. कैसी विडंबना है कि उसी फिल्म के प्रचार में फेरबदल के बाद यह लिखा गया कि मिल मालिक और मिल मजदूर इसे साथ देखें तो हड़ताल रोकी जा सकती है. मुंशी प्रेमचंद फिल्म इंडस्ट्री के रवैए से बहुत दुखी थे,. उन्होंने जैनेंद्र कुमार को इस आशय का पत्र भी लिखा था. 1935 में वे लौट गए थे हालांकि मुंबई में यह फिल्म उनकी मृत्यु के बाद 1939 में रिलीज हुई, लेकिन उनके जीवनकाल में ही निर्माता-निर्देशक सर्टिफिकेशन के लिए फिल्म में सुधार और काटछांट कर रहे थे. हो सकता है कि अपनी लिखी फिल्म के प्रति निर्माता-निर्देशकों के इस स्वार्थी रवैए से वे दुखी हुए हों. कम्युनिस्ट विचारों की फिल्म रिलीज़ होने के समय गांधीवादी हो गयी थी.(देबश्री राय के शोध और अन्य स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर यह लेख लिखा गया है.)


फिल्म का बुकलेट में अंग्रेजी,मराठी और गुजराती कथासार लिखा गया था. यहाँ अंग्रेजी कथासार का हिंदी अनुवाद पेश है 

प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद और प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक भवनानी के सहयोग से लिखी गई ‘द मिल/मजदूर को बड़ी फिल्म कह सकते हैं. इस फिल्म की खास बात रियलिज्म है. मिल का भोपू, वहां का माहौल, धुआं, कारखाने में बहता पसीना और सिस्टम द्वारा बरती जा रही क्रूरता और तकलीफ से कपड़ा मिल का वातावरण तैयार किया गया है. किसी भारतीय फिल्म में अभी तक ऐसा चित्रण नहीं किया गया है.

सीनारियो और निर्देशन : मोहन भवनानी ,

कहानी और संवाद : मुंशी प्रेमचंद,

साउंड इंजिनियर : ईशर सिंह,

कैमरामैन : बी सी मित्र,

संगीत निर्देशक : बी एस हुगन,

कला निर्देशक : एस ए पाटणकर,

साउंड इफ़ेक्ट और स्पेशल ऑर्केस्ट्रेशन : वाल्टर कॉफमैन और उनका ऑर्केस्ट्रा,

फिल्म प्रोसेस : वी एस मराठ, संपादन : प्रताप डी परमार,

चरित्र&nbs

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