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Mother's Day Shayari | Kavishala

KavishalaKavishala June 16, 2020
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तिफ़्ल में बू आए क्या माँ बाप के अतवार की

दूध तो डिब्बे का है तालीम है सरकार की


अकबर इलाहाबादी



माँ की दुआ न बाप की शफ़क़त का साया है

आज अपने साथ अपना जनम दिन मनाया है


अंजुम सलीमी



बर्बाद कर दिया हमें परदेस ने मगर

माँ सब से कह रही है कि बेटा मज़े में है


मुनव्वर राना



तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक

मुझ को अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी


मुनव्वर राना



तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक

मुझ को अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी


मुनव्वर राना



चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है

मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है


मुनव्वर राना



अभी ज़िंदा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा

मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है


मुनव्वर राना



इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है

माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है


मुनव्वर राना



किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई

मैं घर में सब से छोटा था मिरे हिस्से में माँ आई


मुनव्वर राना



दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ

कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए


इफ़्तिख़ार आरिफ़



कल अपने-आप को देखा था माँ की आँखों में

ये आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है


मुनव्वर राना



जब भी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है

माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है


मुनव्वर राना



एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई 'ताबिश'

मैं ने इक बार कहा था मुझे डर लगता है


अब्बास ताबिश



मुनव्वर माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना

जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती


मुनव्वर राना



ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता

में जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सज्दे में रहती है


मुनव्वर राना



‘हैरत है हर चेहरे पर थे, कई मुखौटे और नक़ाब,

तुझसा भी क्या कोई होगा, चलती-फिरती खुली किताब!’


निशांत जैन

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