
किसान का दर्द : मिली सजा मुझे धरती का सीना चीरने की, के आज किसी को सुनाई नहीं दे रही, आवाज मेरे दर्द भरे सीने की।

किसान का दर्द :
मिली सजा मुझे धरती का सीना चीरने की,
के आज किसी को सुनाई नहीं दे रही,
आवाज मेरे दर्द भरे सीने की।
"देखता हूं नित दिन में एक इंसान को,
धूप में जलता हुआ शिशिर में पिसता हुआ
वस्त्र है फटे हुए पांव है जले हुए,
पेट-पीठ एक है बिना हेल्प जोन गए हुए।
खड़ी फसल जल रही,
सूद ब्याज बढ़ रही,
पुत्र प्यासा रो रहा दूध के इंतजार में।
कष्ट में वह पूछता है,
कर्मफल कब पाऊंगा?
या यूं ही संघर्ष करता
परलोक सिधार जाऊंगा?"
- राकेश धर द्विवेदी
कवी हमें इस कविता के जरिए यह कहना चाहता है, कि एक इंसान - जो है किसान, फटे हाल, नंगे पैर, रोज तीन पहर जलता है, बिना किसी स्वास्थ्य चेकअप के। जिस की फसल तो खड़ी जलती रहती है, ना उचित दाम मिलता है, कर्ज चढ़ता रहता है, भूखा मरने की नौबत आ जाती है। अब वह पूछ रहा है, कि मेरी मेहनत की सही कीमत कब मिलेगी? या यूं ही मैं भूखा मर जाऊंगा?
लाखों किसानों की हालत इतनी खराब हो चुकी है, कि वह भारी कर्ज में डूबे हुए हैं और किसान जो सिर्फ प्रकृति के ऊपर निर्भर है उसकी फसल वर्षा, धूप, मौसम की मार से नहीं फलती। ऐसे में "डॉ सुदेश यादव" की कविता में जिसे किसान को भगवान का दर्जा दिया गया है लिखते हैं :
"तू ही पैदा करता है अन्न,
नहीं मिलता पूरा धन,
ढक पाए तू न तन,
तेरे घर न नीवाला है,
हमपे तेरे एहसान हैं,
तू है कितना महान,
तुझे कह दूं भगवान,
तूने सबको ही पाला है।"
पर अपने आप को भगवान ना बताते हुए किसान रोते हुए बोलता है कि :
"मैं किसान हूं, मेरा हाल क्या?
मैं तो आसमां की दया पे हूं,
कभी मौसमों ने हंसा दिया,
तो कभी मौसमों ने रुला दिया।
मौसम की आपदा से किसान टूट तो गया ही था। रही सही, कसर अनाज का सही मूल्य ना मिलना बन गया।
"कर्ज़ एक ऐसे मेहमान की तरह घर में घुसता है,
कि जिसे
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