
हिंदी साहित्य के सागर में कई महान कवि रूपी रत्न हुए हैं जिन्होंने अपनी कविताओं की सुवासित लहरों से जनमानस के ह्रदय को पुलकित किया है. काव्य हिंदी साहित्य की एक ऐसी विधा है जो बच्चो, किशोरों, युवाओं और बुजुर्गों को भी बड़ी ही सरलता से अपनी ओर आकर्षित कर लेती है. प्रस्तुत है हिंदी कविता के ऐसे ही दस सूत्रधार जिन्होंने अपनी कविताओं से न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया बल्कि लोगों के ह्रदय में प्रेम व करुणा के भाव जगाये हैं.
(१) रामधारी सिंह दिनकर (23 सितम्बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के कवि, लेखक व निबन्धकार थे. वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं. दिनकर को 'राष्ट्रकवि' के रूप में भी जाना जाता है. प्रस्तुत है उनकी दो कविताएं :-
[१]
कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल.
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल.
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल.
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल.
[२]
समर शेष है....
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान.
फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है .
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार .
वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं
कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.
(२) महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907 — 11 सितंबर 1987 ) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं. वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं. आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है. प्रस्तुत है उनकी कविताएं -
[१]
मैं नीर भरी दुख की बदली!
मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आंगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
[२]
पूछता क्यों शेष कितनी रात?
पूछता क्यों शेष कितनी रात?
छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू
स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू
परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात!
झर गये ख्रद्योत सारे,
तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे;
बुझ गई पवि के हृदय में काँपकर विद्युत-शिखा रे!
साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात!
व्यंग्यमय है क्षितिज-घेरा
प्रश्नमय हर क्षण निठुर पूछता सा परिचय बसेरा;
आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा!
छीजता है इधर तू, उस ओर बढ़ता प्रात!
प्रणय लौ की आरती ले
धूम लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले
मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्जवल भारती ले
मिल, अरे बढ़ रहे यदि प्रलय झंझावात।
कौन भय की बात।
पूछता क्यों कितनी रात?
(३) जय शंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889 - 15 नवंबर 1937 ) हिन्दी कवि, नाटककार, उपन्यासकार व निबन्धकार थे. जय शंकर प्रसाद ने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया.जय शंकर प्रसाद के कारण है ही खड़ीबोली हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी. प्रस्तुत है उनकी कविताएं-
[१]
आँशु ( जय शंकर प्रसाद की प्रसिद्द लम्बी कविता का एक अंश)
ये सब स्फुर्लिंग हैं मेरी
इस ज्वालामयी जलन के
कुछ शेष चिह्न हैं केवल
मेरे उस महामिलन के।
शीतल ज्वाला जलती हैं
ईधन होता दृग जल का
यह व्यर्थ साँस चल-चल कर
करती हैं काम अनल का।
बाड़व ज्वाला सोती थी
इस प्रणय सिन्धु के तल में
प्यासी मछली-सी आँखें
थी विकल रूप के जल में।
बुलबुले सिन्धु के फूटे
नक्षत्र मालिका टूटी
नभ मुक्त कुन्तला धरणी
दिखलाई देती लूटी।
छिल-छिल कर छाले फोड़े
मल-मल कर मृदुल चरण से
धुल-धुल कर वह रह जाते
आँसू करुणा के जल से।
इस विकल वेदना को ले
किसने सुख को ललकारा
वह एक अबोध अकिंचन
बेसुध चैतन्य हमारा।
अभिलाषाओं की करवट
फिर सुप्त व्यथा का जगना
सुख का सपना हो जाना
भींगी पलकों का लगना।
[२]
लहर / काली आँखों का अंधकार
काली आँखों का अंधकार
जब हो जाता है वार पार,
मद पिए अचेतन कलाकार
उन्मीलित करता क्षितित पार-
वह चित्र ! रंग का ले बहार
जिसमे है केवल प्यार प्यार!
केवल स्मृतिमय चाँदनी रात,
तारा किरणों से पुलक गात
मधुपों मुकुलों के चले घात,
आता है चुपके मलय वात,
सपनो के बादल का दुलार.
तब दे जाता है बूँद चार.
तब लहरों- सा उठकर अधीर
तू मधुर व्यथा- सा शून्य चीर,
सूखे किसलय- सा भरा पीर
गिर जा पतझर का पा समीर.
पहने छाती पर तरल हार.
पागल पुकार फिर प्यार-प्यार!
(४) सुभद्रा कुमारी चौहान - (16 अगस्त 1904 -15 फरवरी 1948 ) हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं.उनकी प्रसिद्धि झाँसी की रानी (कविता) के कारण है. सुभद्रा कुमारी चौहान राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया. प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविता
[१]
झाँसी की रानी [कविता के कुछ अंश]
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुभट बुंदेलों की विरुदावलि सी वह आयी झांसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
(५) सुमित्रानंदन पंत - (20 मई 1900 - 28 दिसम्बर 1977) उनका जन्म कौसानी बागेश्वर में हुआ था. उनकी कविताओं में प्रकृति प्रेम झलकता है. झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने. निसर्ग के उपादानों का प्रतीक वबिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही है . प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएं -
[१]
कब से विलोकती तुमको
कब से विलोकती तुमको
ऊषा आ वातायन से?
सन्ध्या उदास फिर जाती
सूने-गृह के आँगन से!
लहरें अधीर सरसी में
तुमको तकतीं उठ-उठ कर,
सौरभ-समीर रह जाता
प्रेयसि! ठण्ढी साँसे भर!
हैं मुकुल मुँदे डालों पर,
कोकिल नीरव मधुबन में;
कितने प्राणों के गाने
ठहरे हैं तुमको मन में?
तुम आओगी, आशा में
अपलक हैं निशि के उडुगण!
आओगी, अभिलाषा से
चंचल, चिर-नव, जीवन-क्षण!
[२]
तेरा कैसा गान
(क)
तेरा कैसा गान,
विहंगम! तेरा कैसा गान?
न गुरु से सीखे वेद-पुराण,
न षड्दर्शन, न नीति-विज्ञान;
तुझे कुछ भाषा का भी ज्ञान,
काव्य, रस, छन्दों की पहचान?
न पिक-प्रतिभा का कर अभिमान,
मनन कर, मनन, शकुनि-नादान!
हँसते हैं विद्वान,
गीत-खग, तुझ पर सब विद्वान!
दूर, छाया-तरु-बन में वास;
न जग के हास-अश्रु ही पास;
अरे, दुस्तर जग का आकाश,
गूढ़ रे छाया-ग्रथित-प्रकाश;
छोड़ पंखों की शून्य-उड़ान,
वन्य-खग! विजन-नीड़ के गान।
(ख)
मेरा कैसा गान,
न पूछो मेरा कैसा गान!
आज छाया बन-बन मधुमास,
मुग्ध-मुकुलों में गन्धोच्छ्वास;
लुड़कता तृण-तृण में उल्लास,
डोलता पुलकाकुल वातास;
फूटता नभ में स्वर्ण-विहान,
आज मेरे प्राणों में गान।
मुझे न अपना ध्यान,
कभी रे रहा न जग का ज्ञान!
सिहरते मेरे स्वर के साथ,
विश्व-पुलकावलि-से-तरु-पात;
पार करते अनन्त अज्ञात
गीत मेरे उठ सायं-प्रात;
गान ही में रे मेरे प्राण,
अखिल-प्राणों में मेरे गान।
(६) हरिवंश राय बच्चन (27 नवम्बर 1907 – 18 जनवरी 2003 ) हिन्दी भाषा के एक कवि और लेखक थे. बच्चन हिन्दी कविता के उत्तर छायावत काल के प्रमुख कवियों में से एक हैं. उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है. प्रस्तुत है मधुशाला के कुछ अंश -
जलतरंग बजता, जब चुंबन
करता प्याले को प्याला
वीणा झंकृत होती चलती
जब रुनझुन साक़ीबाला
डांट-डपट मधुविक्रेता की
ध्वनित पखावज करती है
मधुरब से मधु की मादकता
और बढ़ाती मधुशाला
हाथों में आने से पहले
हाथों में आने से पहले
नाज़ दिखायेगा प्याला
अधरों पर आने से पहले
अदा दिखायेगी हाला
बहुतेरे इन्कार करेगा
साक़ी आने से पहले
पथिक, न घबरा जाना पहले
मान करेगी मधुशाला
यज्ञ-अग्नि-सी धधक रही है
मधु की भट्टी की ज्वाला
ऋषि-सा ध्यान लगा बैठा है
हर मदिरा पीने वाला
मुनि-कन्याओं-सी मधुघट ले
फिरतीं साक़ी बालाएं
किसी तपोवन से क्या कम है
मेरी पावन मधुशाला
बार-बार मैंने आगे बढ़...
बार-बार मैंने आगे बढ़
आज नहीं मांगी हाला
समझ न लेना इससे मुझको
साधारण पीनेवाला
हो तो लेने दो ऐ साक़ी
दूर प्रथम संकोचों को
मेरे ही स्वर से फिर सारी
गूंज उठेगी मधुशाला
(७) गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर 1917 - 11 सितंबर 1964 ) हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवि, आलोचक, निबंधकार, कहानीकार तथा उपन्यासकार थे. उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है. मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे. मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार 'तार सप्तक' के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया. प्रस्तुत हैं उनकी प्रसिद्ध कविता "मुझे कदम-कदम पर"
मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बांहें फैलाए!
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ,
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने....
सब सच्चे लगते हैं,
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए!
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीडा है,
पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ,
इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ,
अजीब है जिंदगी!
बेवकूफ बनने की खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ,
और यह देख-देख बडा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ...
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत.... स्वायत्त हुआ जाता है।
कहानियां लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहां जरा खडे होकर
बातें कुछ करता हूँ
उपन्यास मिल जाते ।
(८) सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (21 फरवरी, 1896 - 15 अक्टूबर, 1961 ) हिंदी के कवि, कहानीकार, निबंध लेखक व उपन्यासकार थे . किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है. प्रस्तुत है उनकी प्रसिद्ध कविता "बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु"
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!...
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!
(9) सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" (7 मार्च, 1911 - 4 अप्रैल, 1987) हिंदी के कवि, शैलीकार, कहानीकार , ललित-निबन्धकार थे . अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं. अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया. प्रस्तुत उनकी दो कविताएं :-
[१]
एक क्षण भर और
रहने दो मुझे अभिभूत
फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं
ज्योति शिखायें
वहीं तुम भी चली जाना
शांत तेजोरूप!
एक क्षण भर और
लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते!
बूँद स्वाती की भले हो
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से
वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को
भले ही फिर व्यथा के तम में
बरस पर बरस बीतें
एक मुक्तारूप को पकते!
[२]
अब देखिये न मेरी कारगुज़ारी
कि मैं मँगनी के घोड़े पर
सवारी पर
ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान
और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दुकान
से किराया
वसूल कर लाया हूँ ।
थैली वाले को थैली
तोड़े वाले को तोड़ा
-और घोड़े वाले को घोड़ा
सब को सब का लौटा दिया
अब मेरे पास यह घमंड है
कि सारा समाज मेरा एहसानमन्द है ।
(१०) माखन लाल चतुर्वेदी (4 अप्रैल 1889 -30 जनवरी 1968 ) हिंदी के कवि, लेखक और पत्रकार थे . माखनलाल चतुर्वेदी सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे. प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया और नई पीढ़ी का आह्वान किया कि वह गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ कर बाहर आए. उनकी कविताओं में देशप्रेम के साथ-साथ प्रकृति और प्रेम का भी चित्रण हुआ है. प्रस्तुत हैं उनकी दो कविताएं-
[१]
कुछ पतले पतले धागे...
कुछ पतले-पतले धागे
मन की आँखों के आगे!
वे बोले गीतों का स्वर,
गीतों की बातों का घर,
हौले-हौले साँसों में
टूटा है, जी जगती पर,
प्राणों पर सावन छाया,
जिस दिन श्यामल घन जागे।
द्रव पतले-पतले धागे,
मन की आँखों के आगे।
अपनी कीमत दो कौड़ी--
कर, मैं उनके पथ दौड़ी,
दृग-पथ-गति से घबराकर,
प्रभु-माया हुई कनौड़ी,
ज्यों-ज्यों सूझों ने पकड़ा,
त्यों-त्यों स्मृतियों से भागे।
मन की आँखों के अपने,
वे सपने वाले धागे।
किस देश-निवासी हो तुम,
किस काल-श्याम की भाषा,
कब उतरोगी अन्तर में,
कवि की गरबीली आशा।
मैं सह लूँगा आँखों के।
ये उल्कापात अभागे,
जो पा जाऊँ सूझों के,
मैं पतले-पतले धागे!
क्यों नभ में ये चमकीले,
दाने बिखेर डाले हैं,
किस-दुनियाँ के दृग-मोती,
किस श्यामा के छाले हैं।
ये इतनी टीसों य घन,
मिल गये किसे मुँह माँगे?
मधु-याद-वधू के स्वर के
नव पतले-पतले धागे!
[२]
एक तुम हो...
गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।
कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।
तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।
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