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हिंदी कविता के दस सूत्रधार | कविशाला

Kavishala LabsKavishala Labs July 18, 2020
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हिंदी साहित्य के सागर में कई महान कवि रूपी रत्न हुए हैं जिन्होंने अपनी कविताओं की सुवासित लहरों से जनमानस के ह्रदय को पुलकित किया है. काव्य हिंदी साहित्य की एक ऐसी विधा है जो बच्चो, किशोरों, युवाओं और बुजुर्गों को भी बड़ी ही सरलता से अपनी ओर आकर्षित कर लेती है. प्रस्तुत है हिंदी कविता के ऐसे ही दस सूत्रधार जिन्होंने अपनी कविताओं से न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया बल्कि लोगों के ह्रदय में प्रेम व करुणा के भाव जगाये हैं.


(१) रामधारी सिंह दिनकर (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के कवि, लेखक व निबन्धकार थे. वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं. दिनकर को 'राष्ट्रकवि' के रूप में भी जाना जाता है. प्रस्तुत है उनकी दो कविताएं :-  


[१]

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी

चिटकाई जिनमें चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर

लिए बिना गर्दन का मोल

कलम, आज उनकी जय बोल.

जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन

माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल

कलम, आज उनकी जय बोल.

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रही सौ लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी

धरती रही अभी तक डोल

कलम, आज उनकी जय बोल.

अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा,

साखी हैं उनकी महिमा के

सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल

कलम, आज उनकी जय बोल.


[२]

समर शेष है....

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,

किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?

किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,

भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?


कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?

तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान.


फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !

ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!

सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,

दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है .


मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,

ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार .


वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है

जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है

देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है

माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है


पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज

सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?


अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?

तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?

सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?

उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में


समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा

और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा


समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा

जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा

धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं

गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं


कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे

अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे


समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो

शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो

पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे

समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे


समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर

खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर


समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं

गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं

समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है

वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है


समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल

विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल


तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना

सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना

बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे

मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे


समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.


(२) महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907 — 11 सितंबर 1987 ) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं. वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं. आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है. प्रस्तुत है उनकी कविताएं -

 

[१]

मैं नीर भरी दुख की बदली!


मैं नीर भरी दुख की बदली!


स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा


क्रन्दन में आहत विश्व हँसा


नयनों में दीपक से जलते,


पलकों में निर्झरिणी मचली!


मेरा पग-पग संगीत भरा


श्वासों से स्वप्न-पराग झरा


नभ के नव रंग बुनते दुकूल


छाया में मलय-बयार पली।


मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल


चिन्ता का भार बनी अविरल


रज-कण पर जल-कण हो बरसी,


नव जीवन-अंकुर बन निकली!


पथ को न मलिन करता आना


पथ-चिह्न न दे जाता जाना;


सुधि मेरे आंगन की जग में


सुख की सिहरन हो अन्त खिली!


विस्तृत नभ का कोई कोना


मेरा न कभी अपना होना,


परिचय इतना, इतिहास यही-


उमड़ी कल थी, मिट आज चली!


[२]

पूछता क्यों शेष कितनी रात?


पूछता क्यों शेष कितनी रात?


छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू


स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू


परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात!


झर गये ख्रद्योत सारे,


तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे;


बुझ गई पवि के हृदय में काँपकर विद्युत-शिखा रे!


साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात!


व्यंग्यमय है क्षितिज-घेरा


प्रश्नमय हर क्षण निठुर पूछता सा परिचय बसेरा;


आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा!


छीजता है इधर तू, उस ओर बढ़ता प्रात!


प्रणय लौ की आरती ले


धूम लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले


मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्जवल भारती ले


मिल, अरे बढ़ रहे यदि प्रलय झंझावात।


कौन भय की बात।


पूछता क्यों कितनी रात?


(३) जय शंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889 - 15 नवंबर 1937 ) हिन्दी कवि, नाटककार, उपन्यासकार व निबन्धकार थे. जय शंकर प्रसाद ने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया.जय शंकर प्रसाद के कारण है ही खड़ीबोली हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी. प्रस्तुत है उनकी कविताएं- 


[१]

आँशु ( जय शंकर प्रसाद की प्रसिद्द लम्बी कविता का एक अंश)

ये सब स्फुर्लिंग हैं मेरी

इस ज्वालामयी जलन के

कुछ शेष चिह्न हैं केवल

मेरे उस महामिलन के।

 

शीतल ज्वाला जलती हैं

ईधन होता दृग जल का

यह व्यर्थ साँस चल-चल कर

करती हैं काम अनल का।

 

बाड़व ज्वाला सोती थी

इस प्रणय सिन्धु के तल में

प्यासी मछली-सी आँखें

थी विकल रूप के जल में।

 

बुलबुले सिन्धु के फूटे

नक्षत्र मालिका टूटी

नभ मुक्त कुन्तला धरणी

दिखलाई देती लूटी।

 

छिल-छिल कर छाले फोड़े

मल-मल कर मृदुल चरण से

धुल-धुल कर वह रह जाते

आँसू करुणा के जल से।

 

इस विकल वेदना को ले

किसने सुख को ललकारा

वह एक अबोध अकिंचन

बेसुध चैतन्य हमारा।

 

अभिलाषाओं की करवट

फिर सुप्त व्यथा का जगना

सुख का सपना हो जाना

भींगी पलकों का लगना।

 

[२]

लहर / काली आँखों का अंधकार

काली आँखों का अंधकार

जब हो जाता है वार पार,

मद पिए अचेतन कलाकार 

उन्मीलित करता क्षितित पार-


वह चित्र ! रंग का ले बहार

जिसमे है केवल प्यार प्यार!

केवल स्मृतिमय चाँदनी रात,

तारा किरणों से पुलक गात

 मधुपों मुकुलों के चले घात,

आता है चुपके मलय वात,


सपनो के बादल का दुलार.

तब दे जाता है बूँद चार.

तब लहरों- सा उठकर अधीर

तू मधुर व्यथा- सा शून्य चीर,

सूखे किसलय- सा भरा पीर

गिर जा पतझर का पा समीर.

पहने छाती पर तरल हार.

पागल पुकार फिर प्यार-प्यार!


(४) सुभद्रा कुमारी चौहान - (16 अगस्त 1904 -15 फरवरी 1948 ) हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं.उनकी प्रसिद्धि झाँसी की रानी (कविता) के कारण है. सुभद्रा कुमारी चौहान राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया. प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविता 


[१]

झाँसी की रानी [कविता के कुछ अंश] 

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,

बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,

देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,

नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।

महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

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