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गुलज़ार देहलवी के लिए सामाजिक और राजनीतिक सौहार्द से बड़ी कोई चीज नहीं थी

Kavishala LabsKavishala Labs July 6, 2020
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ऐसे हालात न पैदा किए जाएं कि ये गंगा जमुनी ज़बान सिर्फ मुसलमानों की ज़बान बनकर रह जाए.

- गुलज़ार देहलवी


मिटती हुई दिल्ली के निशां हैं हम लोग

ढूंढोंगे कोई दिन में कहां हैं हम लोग

गुलज़ार अबरू-ए-ज़बां अब हमीं से है

दिल्ली में अपने बाद ये लुत्फ़-ए-सुख़न कहां

तारीख़ अब जो होगी मुरत्तब ज़बान की

गुलज़ार देहलवी को भुलाया न जाएगा


गुलज़ार देहलवी उस तहज़ीब का प्रतिनिधित्व करते थे जिसमें हमारे समय की नफ़रत, घृणा और कट्टरता नहीं थी. गुलज़ार के लिए सामाजिक और राजनीतिक सौहार्द से बड़ी कोई चीज शायद थी ही नहीं. वो अपनी नज़्मों से भी हमेशा शांति, एकता और भाईचारे का ही संदेश देते रहे. ऐसे में जब-जब दिल्ली की तहज़ीब और ज़बान की बात आएगी उनका नाम लिया जाएगा और उनके ये शेर ख़ास तौर पर दर्ज किए जाएंगे!

पंडित आनंद मोहन ज़ुत्शी ‘गुलज़ार देहलवी’ (1925-2020) देहली बाज़ार, सीताराम, पुरानी दिल्ली के गली कश्मीरियान में पंडित त्रिभुवन नाथ ज़ुत्शी ‘ज़ार देहलवी’ और बृज रानी ज़ुत्शी ‘बेज़ार देहलवी’ उर्फ विक्टोरिया ज़ुत्शी के घर जन्मे.पिता ज़ार देहलवी, दाग़ देहलवी के पहले शागिर्द थे; जो अंग्रेजी, संस्कृत और फारसी समेत कई भाषाओं के विद्वान होने के अलावा इस्लामियात, वेदांत और गणित की गहरी जानकारी रखते थे.वो सेवानिवृत्त के बाद भी 39 साल तक इंद्रप्रस्थ कॉलेज फॉर वूमेन में पढ़ाते रहे, जहां चर्चित फिक्शन राइटर कुर्रतुलऐन हैदर और जानी-मानी शायरा अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा भी उनकी स्टूडेंट रहीं. यूं समझें कि पिता को दाग़ से निस्बत थी, वही दाग़ जो ज़बान का मालिक था. कहते हैं दिल्ली की लिंग्विस्टिक्स हिस्ट्री में सबसे ऑथेंटिक टकसाली ज़बान दाग़ की थी.

जब गुलज़ार देहलवी सिर्फ 13-14 बरस के थे तब बाबा-ए-उर्दू मौलवी अब्दुल हक़ ने कहा था-अपने बुज़ुर्गों की तरह फ़सीह (Eloquent) उर्दू लिखता और बोलता है और ये तो हम जैसों का देखा-भाला है कि गुलज़ार जब बोलने पर आते थे तो पर्यायवाची शब्दों का ढेर लगा देते थे. हालांकि वो ख़ुद अपने ज़माने में ‘जोश’ को ज़बान का सबसे बड़ा उस्ताद बताते थे. ये और बात है कि जोश भी इनके क़ायल थे..

वहीं, मां ‘बेज़ार’ की बात करें तो वो साइल देहलवी जैसे शायर की शागिर्द थीं. उनके बारे में कहा जाता था कि अगर देहली की औरतों की टकसाली ज़बान सुनना हो तो इस पंडिताइन से सुनो.

ये बात भी मशहूर थी कि अगर दिल्ली आकर गुलज़ार की वालिदा से नहीं मिले तो दिल्ली ही नहीं देखी.

दरअसल दिल्ली की तहज़ीब गुलज़ार साहब के लालन-पालन का हिस्सा थी. वो तमाम धर्मों से परिचित थे. गीता, बाइबिल क़ुरान और जाने क्या-क्या पढ़ रखा था.

संस्कृत

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