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Stories and Poetry from IAS OfficersArticle6 min read

ज़िंदगी की राहें और दिल की मंजिले कब एक हुई हैं - सुमिता मिश्रा

Kavishala DeskKavishala Desk May 29, 2021
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[Stories and Poetry from the Room of IAS Officers]


पहाड़ हमेशा रुका रहा और नदी बह चली,

कभी दोनों ने एक दूसरे की शिकायत नहीं की।


डॉ. सुमिता मिश्रा का जन्म लखनऊ में हुआ। उनके माता-पिता डॉ. एन.सी. मिश्रा एवं डॉ. श्रीमती पी.के. मिश्रा विख्यात डॉक्टर थे। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से बी.ए. और एम.ए. (अर्थशास्त्र) उत्तीर्ण कर विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। सन् 1990 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में उनका चयन हुआ। पिछले 31 वर्षों से वे हरियाणा सरकार के कई महत्त्वपूर्ण पद और जिम्मेदारियाँ सँभाल रही हैं। अंग्रेजी और हिंदी, दोनों भाषाओं में इनकी कविताएँ कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी ४ किताबें प्रकाशित हो चुकी है, २ हिंदुस्तानी और २ अंग्रेजी में, अंग्रेजी कविताओं का संकलन ‘A Life of Light’ वर्ष 2011 में प्रकाशित हुआ और खूब सराहा गया। तत्पश्चात् कविता-संग्रह ‘जरा सी धूप’ का प्रकाशन वर्ष 2013 में हुआ तथा साहित्य-जगत् में यह संग्रह अत्यंत चर्चित रहा। लेखन के अलावा साहित्य के प्रसार-प्रचार में भी उनकी गहन रुचि है।

वे Chandigarh Literary Society (CLS) की संस्थापक अध्यक्ष हैं, जिसके तत्त्वावधान में अनेक सफल और लोकप्रिय साहित्यिक कार्यक्रम चंडीगढ़ में आयोजित हुए हैं। यह संस्था ‘Literati-Chandigarh Litfest’ का भी पिछले कई वर्षों से सफलतापूर्वक आयोजन कर रही है।


उनकी कविताएं:


[मै निराश नहीं अब भी - सुमिता]

मै निराश नहीं अब भी

पर निशब्द ज़रूर हूँ

मुझे मौसम, गुल , गुलनार और हवाएँ

नहीं दिखती , नहीं महसूस होती


निशब्द ही नहीं , इस दुःख के सैलाब

के आगे निस्तब्द हूँ

इस ख़ौफ़नाक ग़म में ,

इस एकांकी दर्द में

मैं अकेले नहीं


हज़ारों और भी हम जैसे

लड़ रहें हैं चुप चाप

तड़प रहें हैं अंदर अंदर

एक एक जान के लिए


नहीं , हम नहीं डरते अंधेरों से

मगर इस कदर अंधेरे कब हुए हैं कहीं

रोशनी परास्त हम लोग

देख रहें हैं मूक

कहीं इंसानों की जलती चिताएँ

कहीं इंसानियत की जलती मशालें


ये अजब गफ़लत का दौर है

निराशा और आशा एक साथ

पुतलियों में झलकते हैं ,

हम भी रोज़ इन्हीं में

डूबते और उभरते हैं ...


अपनों से इलावा किसी के लिए दुआ

कभी पहले, इस शिद्दत से न की

खुद से बढ़कर , हर बंदे से कभी

यूँ अपनापन और खुदाई मोहब्बत न की ,

इसमें भी हम अकेले नहीं

शायद इस अनहोनी के अज़ाब में

तभी कुछ उम्मीद ज़िंदा है ...



[हम जानते हैं - सुमिता]

दूर से जैसे भी दिखते हों, उनकी हक़ीक़त हम जानते हैं ,

कई आला हस्तियों की असलियत हम जानते हैं


बेवफ़ा न होगा मगर वो फिर मुझे धोखा देगा,

यकीनन, उसकी कैफ़ियत हम जानते हैं


जो बग़ैर हक़ और शक करे उल्फ़त अदा

ऐसी भी एक आध शकसियत हम जानते हैं


आरज़ू ही रही मिट जाने की उसकी बाहों में,

दुशवारियाँ ऐ वक़्त और मोहब्बत हम जानते हैं


हमारी मय्यसर शान ए शौक़त पे न जाना,

इंतेज़ार, मायूसी और ग़ुरबत हम जानते हैं


बेक़सूर थीं सीता मैय्या और रानी द्रौपदी दोनों,

उनकी तरह उठाना तोहमत हम जानते हैं


रिवाजों में खूबसूरत चलन सदियों के मगर

कई दस्तूर से ज़रूरी है बग़ावत हम जानते हैं

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