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देवभूमि में जन्मे वो कवि जिनका हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में विशेष योगदान रहा।

Kavishala DailyKavishala Daily November 9, 2021
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खैरी विपता क, अंधेरा अडैयती क, शुख क उज्याल थै,जगणो छँव ।

में कुइ ओर नी छँव मेरा बाल्वो , देव भूमि कु में पहाड़ ब्वानु छोंं ।।

२८ राज्यों से बने भारत देश में सभी राज्यों का अपना महत्व है जो मुख्यत उस राज्य की संस्कृति बोली भाषा और साहित्य पर आधारित है। उत्तराखंड राज्य अपनी पावन धरती और प्राकृतिक सुंदरता के कारण संपूर्ण भारतवर्ष के अन्य राज्यों में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए खड़ा है। हमारे भारतीय एवं प्राचीन ग्रंथों के कथन अनुसार उत्तराखंड राज्य देवताओं की सर्वाधिक रमणीय भूमि के रूप में बहुत ही ज्यादा प्रसिद्ध है यही कारण है कि इस राज्य को देवभूमि अर्थात देवो की भूमि के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड में बोली जाने वाली मुख्य रूप से 3 भाषाएं मिलेंगे पहली गढ़वाली, दूसरी भाषा जौनसारी और तीसरी भाषा कुमाऊनी जोबहुत ही प्रचलित रूप से बोली जाती हैं। भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण के कथन अनुसार उत्तराखंड राज्य में कुल 13 भाषाएं बोली जाती हैं। 


साहित्य 

उत्तराखण्ड का लोक-साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। गीतों की दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो कुमाऊँ का लोक-साहित्य विशेष रूप से जन-जन को आकर्षित करता है। उत्तराखण्ड लोक साहित्य छः प्रकार के माने जाते हैं: लोकगीत ,कथा गीत ,लोक-कथाएँ ,लोकोक्तियाँ कथाएँ ,पहेलियाँ और अन्य रचनाएँ। हांलाकि उत्तराखंड साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। देवभूमि ने ऐसे कई रचनाकारों को जन्म दिया जिन्होंने हिंदी भाषा व् हिंदी साहित्य के स्वरुप को और समृद्ध बनाने का कार्य किया। सुमित्रानन्द पंत ,पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, शिवानी, मनोहर श्याम जोशी, हिमांशु जोशी, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी जैसे अनेक उत्तराखंडी साहित्यकारों ने हिंदी को समृद्ध बनाने में अहम योगदान दिया है। 


सुमित्रानंदन पंत : 20 मई, 1900 को प्रकृति की गोद में बसे अल्मोड़ा जिले के कौसानी की धरती ने सुमित्रानंदन पंत के रूप में देश को छायावादी, प्रगतिवादी, अध्यात्मवादी कवि दिया जिसने हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में अपना विशेष योगदान दिया। पंत जी की स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, वाणी, पल्लव, युगांत, उच्छ्वास, ग्रन्थि, गुंजन, ग्राम्या, कला और बूढ़ा चांद, लोकायतन, चिदंबरा, सत्यकाम प्रमुख रचनाएं रहीं हैं। अपनी कलमकृती से दिए योगदान के लिए उन्हें पद्म भूषण (1961) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1968) जैसे उल्लेखनीय सम्मानों से सम्मानित किया जा चूका है। 


उस फैली हरियाली में,

कौन अकेली खेल रही मा!

वह अपनी वय-बाली में?

सजा हृदय की थाली में--


क्रीड़ा, कौतूहल, कोमलता,

मोद, मधुरिमा, हास, विलास,

लीला, विस्मय, अस्फुटता, भय,

स्नेह, पुलक, सुख, सरल-हुलास!

ऊषा की मृदु-लाली में--

किसका पूजन करती पल पल

बाल-चपलता से अपनी?

मृदु-कोमलता से वह अपनी,

सहज-सरलता से अपनी?

मधुऋतु की तरु-डाली में--


रूप, रंग, रज, सुरभि, मधुर-मधु,

भर कर मुकुलित अंगों में

मा! क्या तुम्हें रिझाती है वह?

खिल खिल बाल-उमंगों में,

हिल मिल हृदय-तरंगों में!

-सुमित्रानंदन पंत  


मंगलेश डबराल : जाने माने साहित्यकार मंगलेश डबराल का जन्म उत्तराखंड के टिहरी जिले के काफल पानी गांव में हुआ था। उनकी पहाड़ पर लालटेन, हम जो देखते हैं, लेखक की रोटी, एक बार आयोवा, आवाज भी एक जगह है जैसी प्रसिद्ध काव्य रचनाएं हैं। मंगलेश डबराल को साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा शमशेर सम्मान, स्मृति सम्मान, पहल सम्मान और हिंदी अकादमी दिल्ली के साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया जा चूका है। उनके साहित्य में दिए योगदान ने साहित्य को बढ़ावा देने में अहम् भूमिका निभाई है।

कुछ देर के लिए मैं कवि था

फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ

सोचता हुआ कविता की ज़रूरत किसे है

कुछ देर पिता था

अपने बच्चों के लिए

ज़्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ

कभी अपने पिता की नक़ल था

कभी सिर्फ़ अपने पुरखों की परछाईं

कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ

बची रहे रोज़ी-रोटी कहता हुआ


कुछ देर मैंने अन्याय का विरोध किया

फिर उसे सहने की ताक़त जुटाता रहा

मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूँगा

जिनमें मेरी आत्मा नहीं है जो आतताइयों के हैं

और जिनसे ख़ून जैसा टपकता है

कुछ देर मैं एक छोटे से गड्ढे में गिरा रहा

यही मेरा मानवीय पतन था


मैंने देखा मैं बचा हुआ हूँ और साँस

ले रहा हूँ और मैं क्रूरता नहीं करता

बल्कि जो निर्भय होकर क्रूरता किए जाते हैं

उनके विरूद्ध मेरी घॄणा बची हुई है यह काफ़ी है


बचे खुचे समय के बारे में मेरा ख़्याल था

मनुष्य को छह या सात घन्टे सोना चाहिए

सुबह मैं जागा तो यह

एक जानी पहचानी भयानक दुनिया में

फिर से जन्म लेना था

यह सोचा मैंने कुछ देर तक

-मंगलेश डबराल


हिमांशु जोशी : ‘कगार की आग’ के रचनाकार हिमांशु जोशी हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार तथा उपन्यासकार जन्म 4 मई 1935 को उत्तराखंड के चंपावत जिले के ज्योस्यूडा गांव में हुआ था। सामाजिक ऊंच-नीच और जाति व्यवस्था पर वार करते हुए रची उनकी रचना ‘कगार की आग’ ने विश्वस्तर पर उन्हें प्रसिद्धि दिलाने का कार्य किया। ‘कगार की आग’, ‘छाया मत छूना मन’ जैसे उपन्यास लिखे. उनकी प्रमुख कहानी संग्रह में ‘जलते हुए डैने’, ‘मनुष्य चिह्न’ लिखी उनकी रचना मुख्य रूप से प्रचलित रहीं। उनके चर्चित उपन्यास ‘तुम्हारे लिए’ पर आधारित एक दूरदर्शन धारावाहिक भी बना। हिमांशु जोशी को उनके योगदान के लिए कई सम्मनों से सम्मानित किया गया जिसमें गोविंद वल्लभ पंत सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का पुरस्कार और केंद्रीय हिंदी संस्थान का गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार शामिल है। 


डॉ गिरि राज शाह: डॉ गिरि राज शाह का जन्म 15 अप्रैल 1940 को अल्मोड़ा में हुआ था,ये एक कर्तब्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी होने के साथ साथ बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति भी थे ,इन्होंने उत्तराखंड के साहित्य व कला के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया ,इन्होंने वर्ष 1974 -75 में उत्तराखंड शोध सन्स्थान की स्थापना की इस संस्थान का मूल उद्देश्य प्रदेश की कला,साहित्य तथा संस्कृति को संरक्षण प्रदान करना था ,इनके साहित्यिक योगदानों के लिए अनेक संस्थानों द्वारा इन्हें सम्मान दिया गया जिनमे गोविंदबल्लभ पन्त पुरस्कार,उत्तराखंड साहित्य पुरस्कार और उत्तराखंड रत्न पुरस्कार आदि हैं।


गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' : गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' का जन्म 10 सितम्बर 1945 को अल्मोड़ा में हुआ था ,लगातार 38 वर्षों से जन आंदोलनों को जीवंत करने वाले जनकवि गिर्दा को गढ़वाल कुमाऊं की भौगोलिक सीमाएं कभी भी बांध नहीं पाई, उत्तरकाशी से पिथौरागढ़ तक शोषण के विरुद्ध लोगों ने प्रतिरोध के लिए गिर्दा के गीतों को हथियार के रूप में गाया और गिर्दा ने लोक गायक झुसिया दमाई पर महत्वपूर्ण शोध प्रबंध भी लिखा है।


कुमाऊं हमारा है, हम कुमाऊं के हैं, यहीं हमारी सब खेती बाड़ी है.

तराई, भाबर, वन-वृक्ष, पवनचक्कियां, नदियां, पहाड़, पहाड़ियां

सब हमारी हैं. यहीं हम पैदा हुए, यहीं रहेंगे,

यहीं हमारी नाड़ियां छूटेंगी. यही तो हमारा पितृगृह है,

इसे छोड़ कहां जाएंगें हम. फिर फिर यहीं जन्म लेंगे.

ये थाती हमे प्यारी है. बद्री केदार धाम भी यहीं हैं, कैसी कैसी पुष्प वाटिकाएं हैं,

पांचों प्रयाग और उत्तरकाशी सब हमारे सामने है.

 सबसे बड़ा पर्वत हिमालय, जिसके पीछे कैलास है,

यहीं स्थित है. हमारे यहां दही, दूध, घी की बहार रहती थी,

बोरे के बोरे अनाज भरा धरा रहता था, हम ऊंचे में रहे, ऊंचे ही थे.


हम कोई भी अनाड़ी नहीं थे. पनघट, गोचर सब अपने थे,

उनमें कांटेदार तार नहीं लगा था. इमारती लकड़ी, ईंधन चीड़ की नोकदार सूखी पत्तियां,

मशाल के लिए ज्वलनशील चीड़ की

लकड़ी या छिलके हम वनों से ले आते थे.

घरों में खेत के आगे अखरोट, दाड़िम, नींबू, नारंगी के फल लदे रहते थे.

घसियारे और ग्वाले घर घर में भैंसे, गायें, बकरियां पालते थे.

-गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा'





 

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